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कश्ती को बस इक बार जताना है मुझे भी

जब तैर लिया, पार हो जाना है मुझे भी

 

जो अपने सिवा खास किसी को न समझते

कितना हूँ मैं दुश्वार बताना है मुझे  भी

 

तूफाँ  से यही बात कही, मैंने यहाँ पर

हर हाल चरागा ही जलाना है मुझे भी

 

अब छूट घटाओं को कभी दे नहीं सकता

पानी तो हर एक हाल पिलाना है मुझे भी

 

मत सोच सफ़र, पाँव मेरे बांध के रखना

जब वक्त कहे, लौट के आना है मुझे भी

 

जो आग लगाना ही बड़ा काम समझते

बस कह दो उसे,शहर बसाना है मुझे भी

मौलिक और अप्रकाशित 

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Comment by Dr Lalit Kumar Singh on July 2, 2013 at 5:53am
 सरिता जी 
आभार  आपका
सादर   
Comment by Dr Lalit Kumar Singh on July 2, 2013 at 5:52am
जितन्द्र जी,
 आदरणीय
आपके उत्साह वर्धन से तबियत खुस हो जाती है 
 सादर 
Comment by Dr Lalit Kumar Singh on July 2, 2013 at 5:51am
हाँ वीनस भाई,
आभार,
आपको देखता हूँ तो लगता  है बहुत पास हूँ 
सादर 
Comment by वीनस केसरी on July 2, 2013 at 1:59am

वाह वा डॉ साहब ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकारें 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 1, 2013 at 7:09pm
"मत सोचसफ़र, पाँव मेरे बांधके रखना

जब वक्तकहे, लौटके आना है मुझेभी

जो आग लगाना हीबड़ा काम समझते

बस कहदो उसे,शहर बसाना है मुझे भी".......आदरणीय...बहुत ही शानदार गजल के लिए हार्दिक बधाई
Comment by Sarita Bhatia on July 1, 2013 at 1:55pm

बहुत खूब बधाई सर 

Comment by अरुन 'अनन्त' on July 1, 2013 at 12:24pm

वाह बेहतरीन ग़ज़ल आदरणीय बधाई स्वीकारें.

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