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बारिश की बूंदे

प्यासी धरती पर 

बरसती थी जब 
बारिश की बूंदे 
सोंधी - सोंधी सी खुशबु से 
महक उठता था ......
मेरे घर का आँगन .....
खिल उठते थे बगीचे में 
लगे पेड़ - पोधे .....
और खिल उठता था 
हम सब का मन ......
प्यासी धरती पर 
बरसती थी जब 
बारिश की बूंदे ........
घर के बाहर बहता था वो 
छोटा सा दरिया ......
अक्सर चला करती थी जिसमे 
कागज़ की कश्ती ........
पार होता था कौन पता है ???
चींटी और मकोड़े ..........
प्यासी धरती पर 
बरसती थी जब 
बारिश की बूंदे ........
बरसता तो आज भी है बादल 
उसी सिद्दत से लेकिन .......
मेरे घर में आज वो आँगन नही है 
जो महक उठता था तब 
प्यासी धरती पर 
बरसती थी जब 
बारिश की बूंदे ........
न मेरे घर के बाहर 
बहता है अब वो दरिया 
जिसमे चला करती थी 
हमारी कागज़ की कश्ती 
और पार उतरते थे 
चींटी और मकोड़े .....
प्यासी धरती पर 
बरसती थी जब 
बारिश की बूंदे ........
वक़्त बदला है तो
बदल गये है हम भी
और बदल गया है 
घर का आँगन भी,
घर के बाहर बनी वो 
कच्ची सड़क भी .....
ढक दिया हैं इन्हें आज  
सीमेंट की  चादर ने ...
तभी तो ....
अब नही महकता है
मेरे घर का आँगन 
और न चलती हैं 
हमारी कश्ती ........!!!!!!!!
मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment by coontee mukerji on June 28, 2013 at 6:34pm

प्रकृति का काम है निरंतर परिवर्तन करना.अगर कुछ नये ढ़ंग से भाव रचना में प्रवाहित होती तो अच्छा होता .

शुभेच्छु

कुंती.

Comment by Sumit Naithani on June 28, 2013 at 3:25pm

महकती सुंदर रचना 

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