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उड़ गए पखेरू  
अब उजाड़ वीराने में
खुद को बहलाती हूँ
सूख गया है नीर
फ़िर भी
नदी तो कहलाती हूँ।


लहरों की चंचलता
थिरकन, चपलता
अब भी है चस्पा
इस दमकती रेत पर
उन अवशेषों को देख
जी उठती हूँ।


कुछ स्वार्थी, समर्थ हाथ
बढ़ चले हैं रेत की ओर
देख रही हूँ, तड़प रही हूँ
मेरी स्मृतियों से
चिन रहे अपने मकान
और मैं निस्सहाय
देख रही हूँ लाचार
निशब्द, निष्‍प्राण।


कूल पर हैं शूल

शेष झाड़-झंखाड़
सूख गए हैं हरियल गाछ
पीत तृण हैं, सूखी घास
मिट रहे हैं चिन्ह जीवन के
जो साक्षी थे मेरे होने के।


मेरी रेत की नींव पर
खड़ा है आलीशान मकान
घुमावदार जिसके कंगूरे
रूआबदार हैं जिसके छज्जे
जा बैठा है जिन पर
मेरा प्राण-प्रिय पखेरू
चुगता है दाना प्रेम से
गृहस्वामिनी के सुकोमल हाथों से।


मैं भी नदी कहाँ?
खंदक रह गई हूँ
नहीं आता अब कोई यहाँ 
न ही बाकी जीवन के निशां
खोजती हूँ जब वज़ूद यहाँ
पाती हूँ उजड़ने की दास्तां।

[मौलिक और अप्रकाशित रचना]


-  सुशीला श्योराण ’शील’

 

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Comment by JAWAHAR LAL SINGH on June 24, 2013 at 7:55am

आदरणीया बहुत ही जीवंत प्रस्तुति! सादर!

Comment by MAHIMA SHREE on June 23, 2013 at 8:19pm

आदरणीया सुशीला जी .नमस्कार .. बहुत ही सुंदर प्रस्तुति .. नदी के दुःख को स्त्री से बेहतर और कौन समझ सकता है ..सादर

Comment by D P Mathur on June 23, 2013 at 5:51pm

कुछ स्वार्थी, समर्थ हाथ
बढ़ चले हैं रेत की ओर
देख रही हूँ, तड़प रही हूँ
मेरी स्मृतियों से
चिन रहे अपने मकान
और मैं निस्सहाय
देख रही हूँ लाचार
निशब्द, निष्प्राण।
बहुत सटीक रचना !

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