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जन जन के संताप........कुण्डलिया

सरकारें अब खेलती, यह शतरंजी खेल
ऊँट ऊँट मे मित्रता, हाँथी कसी नकेल
हाँथी कसी नकेल, बजीर हुआ अंजाना
घोडा तिरछी चाल, चले तो पाये दाना
कहते है कविराय, लडा के सबको मारेँ
प्यादों मे तकरार , कराती है सरकारें
----------
कोटा पर जो मिल रहा, चावल चीनी तेल
उसमे क्या क्या हो रहा, कैसा कैसा खेल
कैसा कैसा खेल, खेलते हैं व्यापारी
जीता कोटेदार, बिचारी जनता हारी
कहते हैं कविराय, लगाओ दस दस शोंटा
ठगने खातिर आज, उठाते हैं जो कोटा
-----
चाँदी आलू हो गये, स्वर्ण भये हैं प्याज
बिन काटे ही बह रहे, अश्रु नयन से आज
अश्रु नयन से आज, रो रही दुनिया सारी
नही भोजन के साथ, मिलेगी अब तरकारी
रहे सोच कविराय, बही ये कैसी आँधी
जन जन तो है त्रस्त, नफाखोरों की चाँदी
----------
मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by manoj shukla on May 3, 2013 at 5:38pm
हार्दिक आभार.. आदर्णीय कुशवाहा जी
Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 3, 2013 at 5:01pm

सुन्दर प्रयास 

सादर बधाईआदरणीय मनोज जी 

Comment by manoj shukla on April 26, 2013 at 8:57am

आदर्णीय सौरभ पाण्डेय जी...सादर आभार आपका जो आपने मेरी रचना मे कमी को उजागर किया. मैने उन कमियों को दूर करने का प्रयास किया है....सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 25, 2013 at 11:48pm

कहते है कविराय, नही उनमे है प्रीति
प्यादों मे तकरार , कराती है राजनीति...   इस तरह से कुण्डलिया का अंत नहीं हो सकता. रोला वाला भाग रोला के नियमों क अनुसार ही होगा.

बाकी आपका प्रयास अच्छा है. सतत प्रयासरत रहें.   एक बात और सोंटा  सही शब्द है न कि शोंटा.  हम अक्षरियों के प्रति संवेदन शील रहें.

शुभकामनाएँ व बधाइयाँ.. .

Comment by manoj shukla on April 25, 2013 at 8:27pm
आदर्णीय श्री अशोक जी ,तथा आदर्णीय लक्षमण प्रसाद जी आपका सादर आभार....आपके सुझाव अनुसार मैने पोस्ट को एडिट कर दिया है... अपनी रचना को दोषमुक्त करने मे हुई देरी के लिए मै आप सभी महानुभावों से क्षमा माँगता हू जिन्होने मुझे पढा और अपने बहुमूल्य सूझाव दिये
Comment by Ashok Kumar Raktale on April 25, 2013 at 7:40pm

आदरणीय मनोज जी सादर, सुन्दर कुण्डलिया छंद लिखे हैं किन्तु मुझे लगता है पोस्ट करने की शीघ्रता में आप ठीक से मात्रा गणना नहीं कर पा रहे हैं. अंतिम छंद यदि सुधार कर दिया जाय तो क्या ही सुन्दर निखरेगा. सुन्दर भाव प्रस्तुत करने के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें.

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 25, 2013 at 7:05pm

तीनो कुंडलिया सुन्दर और सामयिक, हार्दिक बधाई श्री मनोज शुक्ला जी | "जन जन तो त्रस्त" का एक बार पुनः अवलोकन करे 

शायद आप "जन जन तो है त्रस्त" लिखना चाह रहे थे |

Comment by manoj shukla on April 24, 2013 at 10:33pm
सादर आभार आदर्णीय पाठक जी....स्नेह बनाये रखें
Comment by ram shiromani pathak on April 24, 2013 at 9:33pm

कुण्डलियां अच्छी हैं!आ० मनोज शुक्ला जी ///बधाई स्वीकारे।  सादर

Comment by manoj shukla on April 24, 2013 at 8:03pm
सादर आभार आपका आदर्णीया. डा.प्राची जी.

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