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भावना अर्पण करूँ....नवगीत// डॉ० प्राची

प्रीत शब्दातीत को शुचि भावना अर्पण करूँ...

 

गूँज लें सारी फिजाएँ

युगल मन मल्हार गाएँ

चंद्रिकामय बन चकोरी

प्रेम उद्घोषण करूँ...

 

प्रीत शब्दातीत को शुचि भावना अर्पण करूँ...

 

मन-स्पंदन कर दूँ शब्दित

तोड़ कर हर बंध शापित

नेह पूरित निर्झरित उर

गान से तर्पण करूँ...

 

प्रीत शब्दातीत को शुचि भावना अर्पण करूँ...

 

भाव झंकृत हृदय धड़कें

सुरमई सब स्वप्न थिरकें

सहज संवेदना स्वीकृत

सर्वदा हो प्रण करूँ...

 

प्रीत शब्दातीत को शुचि भावना अर्पण करूँ...

 

उड़ चलूँ विस्तार लेकर

तर्कणों का सार लेकर

मरघटों की क्षुब्धता को

ज़िंदगी प्रति क्षण करूँ...

 

प्रीत शब्दातीत को शुचि भावना अर्पण करूँ...

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 15, 2013 at 11:06am

रचना अपने भावों से आपके मन में स्थान पा सकी, रचना पर इस अनुमोदन के लिए आपकी आभारी हूँ आ० आशीष त्रिवेदी जी


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 15, 2013 at 11:02am

प्रस्तुत गीत को पसंद करने के लिए आभार आ० श्रीराम जी

Comment by ASHISH KUMAAR TRIVEDI on April 10, 2013 at 11:33am

सुंदर प्रीत शब्दों की मोहताज नहीं इसकी अभिव्यक्ति भावना से होती है। भावनाएं ही इसे सबल बनाती हैं। बिना बोले भी महज एक इशारा ही इसे व्यक्त कर देता है।

अंतिम छंद दिल को छू गया

उड़ चलूँ विस्तार लेकर

तर्कणों का सार लेकर

मरघटों की क्षुब्धता को

ज़िंदगी प्रति क्षण करूँ...

प्रीत शब्दातीत को शुचि भावना अर्पण करूँ...

Comment by श्रीराम on April 1, 2013 at 8:53pm

" सुंदर प्रस्तुति ... बहुत-बहुत बधाई"


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 1, 2013 at 8:50pm

आदरणीय अरुण शर्मा जी,

रचना को महसूस करके आपने अनुमोदित किया, इस लिए आपकी हृदय से आभारी हूँ... सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 1, 2013 at 8:49pm

आदरणीय बृजेश कुमार सिंह जी,

रचना के भावों की शुचिता नें आपके हृदय को स्पर्श किया, इस अनुमोदन हेतु आपकी आभारी हूँ. सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 1, 2013 at 8:45pm

आदरणीय विजय निकोर जी 

रचना एक पाठक को भाव संतृप्त कर सके, तो ही रचना की सार्थकता है, इसे अनुमोदित करने हेतु मैं आपकी आभारी हूँ, सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 1, 2013 at 8:42pm

आदरणीय सौरभ जी,

रचना की भावदशा और समर्पण की शुभ भावना को आपने मान दिया है, इस हेतु आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ..

शब्द संयोजन को साधने का बहुत प्रयास किया था फिर भी दो जगह, अपने सीमित शब्द भण्डार के समक्ष हार गयी 

१. मन-स्पंदन कर दूँ शब्दित..... यहाँ गेयता कुछ बाधित लगी 

२.सहज संवेदना स्वीकृत/सर्वदा हो प्रण करूँ... कई बार हम जो हृदय में महसूस करते हैं, उसे ही पता नहीं क्यों हम स्वयं के समक्ष भी स्वीकार नहीं करते....इसी बात को कहना चाहा था , यदि निर्बाध गेयता रखते हुए, इसका कोई विकल्प दे सकें तो कृपा होगी..

आगे से शब्द संयोजन को साधने का और प्रयास रहेगा.

सादर आभार.


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Comment by Dr.Prachi Singh on April 1, 2013 at 8:32pm

आदरणीय विजय मिश्र जी,

आपकी शुचि भावनाएं इस रचना को प्राप्त हुई, रचनाकर्म प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत आभार.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 1, 2013 at 8:28pm

आदरणीया कुंती मुखर्जी जी,

इस रचना में प्रेम की अभिव्यक्ति की गहनता को मान देने के लिए आपकी आभारी हूँ, सादर.

कृपया ध्यान दे...

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