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आँख जैसे लगी, ख़ाक घर हो गया
जुल्म का प्रेत कितना निडर हो गया ।

कुछ दरिन्दों ने ऐसी मचाई गदर
खौफ की जद में मेरा नगर हो गया ।

थी किसी की दुकाँ या किसी का महल
चन्द लम्हों में जो खण्डहर हो गया ।

है नजर में महज खून ही खून बस
आज श्मसान 'दिलसुखनगर' हो गया ।

थी ख़बर साजिशों की मगर, बेखबर !
ये रवैया बड़ा अब लचर हो गया ।

कौन सहलाये बच्चे का सर तब 'सलिल'
जब भरोसा बड़ा मुख़्तसर हो गया ।

------  आशीष 'सलिल' (हैदराबाद)

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Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on February 23, 2013 at 11:22am

शुक्रिया पाठक जी....

Comment by ram shiromani pathak on February 23, 2013 at 11:16am

भाई आशीष जी,...........बहोत की सुन्दर 

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on February 23, 2013 at 10:19am

तहे दिल से शुक्रिया आ. गणेश जी |


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 23, 2013 at 9:46am

भाई आशीष जी, मतला से लेकर मकता तक यह ग़ज़ल बहुत ही सुन्दर लगी, मंजर निगारी का एक सफल प्रयास किया है आपने, इस मुसल्सल ग़ज़ल पर दाद कुबूल करें ।

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