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सिद्ध होय गर स्वार्थ, दबा दे ख़बरें सच्ची -

मौलिक / अप्रकाशित

खरी-खरी खोटी-खरी, खरबर खबर खँगाल ।

फरी-फरी फ़रियाँय फिर, घरी-घरी घंटाल ।

घरी-घरी घंटाल, मीडिया माथा-पच्ची ।

सिद्ध होय गर स्वार्थ, दबा दे ख़बरें सच्ची ।

परमारथ का ढोंग, बे-हया देखे खबरी ।

करें शुद्ध व्यवसाय, आपदा क्यूँकर अखरी ??

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Comment

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Comment by रविकर on February 6, 2013 at 5:20pm

बहुत बहुत आभार आदरेया / आदरणीय ||

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on February 5, 2013 at 7:36pm

जय हो .............इक दम खरी खरी के लिए बधाई आदरणीय

Comment by राजेश 'मृदु' on February 5, 2013 at 6:42pm

जबर्दस्‍त कुंडलियां है, एक शब्‍द भी हटा नहीं सकते ना ही किसी अन्‍य शब्‍द से प्रतिस्‍थापित नहीं कर सकते । आप जैसे रचनाकारों को पढ़कर मन किसी और जगह चला जाता है, सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 5, 2013 at 1:07pm

सिद्ध होय गर स्वार्थ, दबा दे ख़बरें सच्ची ।

परमारथ का ढोंग, बे-हया देखे खबरी ।---वाह वाह सामयिक कुण्डलिया  पत्रकारिता कि जम कर ख़बर ली है बहुत बहुत बधाई भाई जी  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 5, 2013 at 12:13pm

मतलब, इस बीच फिर आप फ़ैज़ाबाद की गलियों और अयोध्या की घाटों से हो आये ? जय हो प्रभुवर !!!!....

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 5, 2013 at 11:31am

धनबाद आये बसने, क्यों रविकर जी आप

आबाद रहे  खुश रहे, अब स्थापित हो आप 
धनबाद आबाद रहे , धन की हो बरसात 
रविकर की किरणे मिले, ओबीओ हो माध्य 
धनबाद से कुण्डलिया, सुन्दर यह सौगात,
कविवर लक्ष्मण भी कहे, फिर से होगा साथ ।
Comment by रविकर on February 5, 2013 at 11:03am

आभार आदरणीय सौरभ जी, आदरणीय बागी जी ||
सादर --

धनबाद आ गया हूँ -
आदरणीय सौरभ जी-
नियमित होने की कोशिश चल रही है-
आभार -


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 4, 2013 at 8:04pm

आदरणीय रविकर जी, आपने इस कुंडली के माध्यम से चौथे खम्भे के खोखलेपन को उजागर कर दिया है , यही तो हो रहा है, बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर |


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 4, 2013 at 6:42pm

आदरणीय रविभाईजी, आपकी कुण्डलिया किसी पद्य-मंजूषा की तरह होती हैं. हम इसी कारण आपकी कुण्डलियों के शैदाई हैं.

प्रस्तुत छंद के कथ्य मे भी मीडिया के अतुकांत व्यवहार को आपने क्या खूब उकेरा है!.. वाह !!

एक-एक शब्द सान्द्र है. खरी-खरी खोटी-खरी.. वाह वाह ! और नाम दिया घंटाल !! बहुत खूब आदरणीय ! ..हा हा हा .. .  फरी-फरी फरियायँ फिर... कह कर आपने मीडिया की व्यावसायिक टुच्चई को बखूबी साझा किया है.

यह सही है कि ख़बर देने के नाम पर मानवीयता से समझौता किसी तरह से अनुकरणीय नहीं है. लेकिन इस नाम पर जो कुछ हो रहा है, वह आपके संवेदनशील मन को झकझोर गया.  आपकी सोच-प्रक्रिया को मैं ससम्मान स्वीकार करता हूँ. 

 

एक शिकायत भरा प्रश्न -  इतने दिन भाईजी कहाँ रहे ???

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