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“हैलो पूर्वा, शाम साढ़े सात बजे तक तैयार रहना, आज मिस्टर अग्रवाल की बिटिया का महिला संगीत है और रात को डिनर के लिए चलना है” अक्षय नें अपनी पत्नी से फोन पर कहा. पूर्वा नें हामी भरी और पार्टी के कपडे निकालने के लिए अल्मारी खोली. उफ़! कितनी भारी भारी साड़ियाँ, पर आज तो कुछ सौम्य सा पहनने का मन है, सोचते हुए पूर्वा नें पाकिस्तानी कढाई का एक बेहद खूबसूरत सूट निकला और तैयार होने लगी.

आँखों का हल्का सा मेकअप, आई लाईनर, काजल, बालों का ताजगी भरा स्टाईल, चन्दन का इत्र, छोटी सी बिंदी, हल्की सी लिपस्टिक, एक कलाई में घड़ी, दूसरी में सोने के कंगन, हीरों का नजाकत से दमकता हार और अंगूठी पहन, पूर्वा नें खुद को नज़र भर आईने में निहारा और मुस्कान से खिल गयी. आनंदित मन से मुस्कुराते गुनगुनाते हुए झूला झूलते-झूलते अक्षय का इंतज़ार करने लगी.

आठ बजे के बाद भागते-भागते अक्षय घर पहुँचा, और जल्दी-जल्दी वो भी तैयार हो गया. अक्षय लिफ़ाफ़े पर अपना विज़िटिंग कार्ड स्टेपल कर ही रहा था, कि पूर्वा नें पूछा, “अक्षय, मैं कैसी लग रही हूँ?” पर ज्यादा गौर न करते हुए वो बोला, “हाँ अच्छी लग रही हो, अब जल्दी से ताला बंद करो.”

दोनों आयोजन स्थल पर पहुंचे, तब तक दावत शुरू हो चुकी थी, सारे मेहमान आ चुके थे, आयोजन स्थल की जगमग रौशनी और सजावट देखते ही बनती थी. दोनों साथ-साथ सब लोगों से मिलने लगे. तभी मिस्टर मसेज़ चड्ढा दिखे, आपस में औपचारिक बातचीत हुई, अक्षय की नज़र मिसेज़ चड्ढा के हीरों के लोकेट पर पडी और उन लोगों के जाते ही पूर्वा से झल्लाकर बोला, “तुम्हें तो समाज में सिर्फ बेज्ज़ती करानी होती है, इतना भारी हीरों का पेंडेंट सैट लेकर दिया था तुम्हे अभी, फिर भी इतना गंदा सा हार पहन कर आयी हो, ज़रा सी भी अक्ल नहीं है तुम्हें, तुमको तो जेवर लेकर देना ही बेकार है.” पूर्वा के चेहरे का रंग उड़ गया, वो धीरे से बोली, “मैंने पूछा तो था, मैं कैसी लग रही हूँ.” “अरे! मुझे क्या पता था तुम्हें इतनी भी तमीज नहीं है और सारी चीजें मुझे ही देखनी पड़ेंगी” अक्षय बोला और नज़रों-नज़रों में ही उसे तिरस्कृत करता रहा, मानो शर्म आ रही हो उसे पूर्वा को अपने साथ ला कर. पर पूरी पार्टी में पूर्वा सूनी आँखें लिए सिर्फ मुस्कुराती रही. शायद डमी की आखों में आंसुओं की भी ज़गह नहीं होती.

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 1, 2012 at 6:11pm

हार्दिक आभार आपका आदरणीय प्रदीप कुमार जी आपने इस कहानी को पसंद किया.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 1, 2012 at 6:09pm

हाहाहा

आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी,

पूछे जाने पर तो अक्षय नें भी पूर्वा को यही कहा है कहानी में "हाँ! अच्छी लग रही हो." सादर.

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 1, 2012 at 3:48pm

कथानक और कथा के भावों को प्रस्तुत करने में सफल सिद्ध हुई है ।यद्यपि मेरी सोच इस कहानी के बिलकुल विपरीत है ।               जब मुझसे पूछा जाता है तो अधिकांशतह कहता हूँ अच्छी लग रही हो ।

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on December 1, 2012 at 3:33pm

वाह रे भौतिक वाद . भावनाओं का स्थान खत्म होता जा रहा है. पत्नी द्वारा अपने पति कि भी ऐसी इज्जत करते देखा है. 

कथा हेतु बधाई.

आदरणीया प्राची जी, सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 1, 2012 at 3:20pm

आदरणीय सौरभ जी,

बिलकुल सहमत हूँ कि "इस तथ्य को मात्र गंभीरता से नहीं वैचारिकता के प्रिज़्म से गुजार कर समझने की आवश्यकता है. किसी के जीवन की रेखा इतनी सरल नहीं होती."

वैचारिकता जब समझ, सद्भाव और सात्विकता की सुदृढ़ नींव पर खड़ी हो, तभी जीवन ऐसी छोटी छोटी विषम परिस्थितियों से पार पाते है, अन्यथा अहंकार सब भावों पर हावी हो कर रिश्तों में दरार डालनी शुरू कर देता है. 

सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 1, 2012 at 3:12pm

हार्दिक आभार आदरणीय अशोक रक्ताले जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 1, 2012 at 3:10pm

आदरणीया सीमा जी, 

प्रविष्टियों पर आपका इंतज़ार हमेशा रहता है, आपका हार्दिक आभार आपने इस कथा की गहनता में उतर कर, "भावनात्मकता और संवेदना की नमी में आती शुष्कता" को साफ़ शब्दों में उजागर किया .

हार्दिक आभार, आपकी टिप्पणी नें लेखन उद्देश्य को सार्थकता दी है. सादर.

Comment by seema agrawal on December 1, 2012 at 12:17pm

 प्रिय प्राची जी 

कहानी तक पहुँचने में थोड़ी देर हुयी काफी बातें पहले ही की  जा चुकी हैं उन सभी सन्दर्भों पर मेरी  सहमति है |  बस एक बात और ....

जब हम एक लघु कथा प्रस्तुत कर रहे होते हैं तो उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ किसी एक ख़ास बिंदु पर ठहरा होता है फिर और भी क्या क्या होता है या हो सकता है इस बात का कोई मतलब नहीं होता महत्वपूर्ण वो पक्ष है जो आप बताना चाह रहीं /रहें हैं .....निश्चित ही जिस वर्ग विशेष और भाव विशेष को ले कर आप ने कथानक बुना उसे आप सफलता पूर्वक प्रेषित कर सकीं हैं |आपने चिंता ज़ाहिर की 

//किस बर्बादी की ओर बढ़ रहे हैं समाज की संपत्ति, शक्ति और साधन.// सबसे बड़ा नुकसान तो  भावनात्मकता का और संवेदना की नमी का शुष्क हो जाना  है जिसके लिए हमारी संस्कृति  को विश्व में जाना जाता है |

उद्देश्यपूर्ण विषय को प्रस्तुत करने के लिए बधाई 

 

Comment by Ashok Kumar Raktale on December 1, 2012 at 9:50am

वक्त मिलता नहीं है जब, बदलते हालात,

क्या फिर प्यार वफ़ा समझे,समझे न जज्बात/

सुन्दर लघु कथा पर  सादर बधाई स्वीकारें आदरेया डॉ. प्राची जी. 

Comment by पीयूष द्विवेदी भारत on November 30, 2012 at 11:20pm

सादर सहमत हैं प्राची दी...!

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