सूरज ने फक्कड़ से कहा:
"मुझे झुक कर सलाम कर !"
"तुझे सलाम करूं ? मगर क्यों?"
"ये दुनिया का दस्तूर है, चढ़ते सूरज को सभी सलाम करते हैं !"
"करते होंगे, मगर मैं तेरे आगे सिर नहीं झुकऊँगा !"
"मगर क्यों ?"
"क्योंकि तू बहुत कमज़ोर और निर्बल है, जिस दिन सबल हो जाएगा मैं तेरे आगे सर ज़रूर झुकाऊंगा !"
"कमज़ोर और निर्बल ? और वो भी मैं ?"
"हाँ !"
"तो अगर मैं ये साबित कर दूं कि मैं सबल हूँ, तो क्या तुम मुझे सलाम करोगे?"
"एक बार नही सौ सौ बार सिर झुकाकर सलाम करूँगा !"
"तो फिर जल्दी से बतायो कि तुम्हें यकीन दिलवाने के लिए मुझे क्या करना होगा ?
फक्कड़ ने मुस्कुराते हुए कहा:
"एक बार, सिर्फ एक बार रात में उदय होकर दिखा दो !"
Comment
आज की सुबह सफल हुई.
सत्य है योगराजभाई, अपने हिस्से के अंधेरे से कोई उबरता नहीं कभी बल्कि सभी समझौता कर लेते हैं. .. फिर उसे छुपाते हैं आतंकातिरेक के निर्मम प्रहार से, इस चढ़े सूरज की तरह.. इसकी तह बताने के लिए बाल-मन का निर्दोष हृदय चाहिए.. तो सहसा छुद्रता का एहसास होता है. इस सच्चाई को, भाईजी, हर सूरज जानता है.. जानता है कि उसकी उर्मियों में उग आयी बेलौस चिलचिलाहट.. रौद्ररूप की आक्रामक धमक.. किसी क्षमता या बल की परिचायक नहीं.. अपनी बेबस कमियों को छुपाने की एक असहज कोशिश हुआ करती है.. एक प्रदर्शन.. ताकि सनद बनी रहे.
तमस में जीते.. ’अनुबंधं क्षयं हिसां अनवेक्ष्य च पौरुषम्’ के रुआब को जीते लोगों की निर्वीर्यता पर आपका व्यंग्य बड़ा करारा पड़ा है, भाई जी.. बधाई है... इस रौद्र प्रदर्शन की फुसफुसी निकालने के लिए इसी तरह के किसी फक्कड़ के बाल-सुलभ निर्दोष मन की दरकार होती है.. जो कह सके.. अरे.. राजा तो नंगा है.. !!!
पुनश्च बधाई इस सान्द्र छुअन के लिए.
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