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ढूँढ़ लफ्जों को, गजल कहना कठिन है-रविकर

2 1 2 2 2 1 2 2 2 1 2 2

टिप्पणी भी अब नहीं छपती हमारी ।
छापते हम गैर की गाली-गँवारी ।

कक्ष-कागज़ मानते कोरा नहीं अब-
ख़त्म होती क्या गजल की अख्तियारी ।

राष्ट्रवादी आज फुर्सत में बिताते -
कल लड़ेंगे आपसी वो फौजदारी ।

नाक पर उनके नहीं मक्खी दिखाती-
मक्खियों ने दी बदल अपनी सवारी ।

ढूँढ़ लफ्जों को, गजल कहना कठिन है-
चल नहीं सकती यहाँ रविकर उधारी ।।

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Comment

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Comment by रविकर on November 27, 2012 at 5:35pm

आदरणीय आभार-

मात्राओं की गड़बड़ी पर आपकी राय चाहता हूँ-

कृपया-

Comment by वीनस केसरी on November 27, 2012 at 5:32pm

वाह रविकर जी रचना ने भरपूर आनंद दिया
यह दो द्विपदी विशेष रूप से पसंद आईं
शुभकामनाएं

राष्ट्रवादी आज फुर्सत में बिताते -
कल लड़ेंगे आपसी वो फौजदारी ।

ढूँढ़ लफ्जों को, गजल कहना कठिन है-
चल नहीं सकती यहाँ रविकर उधारी ।।

कृपया ध्यान दे...

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