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हिन्दी और मच्छर (हास्य) // शुभ्रांशु

बदलते मौसम की शाम का आनन्द लेने हमसभी पार्क में बैठे थे. हम सभी का मतलब लालाभाई, मैं और एक नये सदस्य भास्करन. तभी भास्करन का मोबाइल किंकियाया. अब उस तरह की आवाज को और क्या शब्द दिया जा सकता है. मोबाइल पर तमिल में काफ़ी देर तक बात चलती रही. यों पल्ले तो कुछ भी नहीं पड़ रहा था लेकिन हमसभी उनके चेहरे के मात्र हावभाव से ही सही, उनकी बातों को पकड़ने की कोशिश करते रहे. कुछ देर के बाद जब उनकी बात खत्म हो गयी तो मैंने अपनी झल्लाहट को स्वर देते हुये ठोंक दिया,
"यार तमिल सुनने में क्या लगता है, मानों कोई कनस्तर( टिन का डिब्बा) में कंकड़ डाल के जोर-जोर से हिला रहा हो.."
सभी एक साथ ठठा पडे़. मगर यह साफ़ लगा कि भास्करन को यह तनिक नहीं सुहाया था. लेकिन वे ठहरे विशुद्ध स्मार्ट सज्जन,  मेरी तरफ उन्होंने एक तिरछी मुस्कान फ़ेंक दी. मगर समझ में नहीं आया कि ये भाव उनकी खिसियाहट के थे या वो आने वाले युद्ध की चेतावनी दे रहे थे. कुछ देर तक तो अपने विदेशी बेटे की उपलब्धियों को बखानते रहे कि अचानक एकदम से अपनी बातों का हैण्डिल भाषा और इसके अंदाज की ओर मोड दिया,
"हिन्दी भी तो गरेड़ियों की भाषा है..!"
 
उनके इस कथन पर हमसभी एक साथ चौंक पड़े. ये तो एकदम से तथ्यहीन आरोप है. अलबत्ता अंग्रेजी के बारे में ये बातें जरूर कही जाती हैं कि शुरू में ब्रिटेन में राजशाही तथा कुलीन वर्ग की भाषा भी अंग्रेजी नहीं थी, फ्रेंच थी. अंग्रेजी तब निम्न वर्ग या गरेड़ियों और मजदूरों की भाषा हुआ करती थी. लेकिन हिन्दी पर ऐसा कोई आरोप हमसभी की समझ से एकदम परे था. अपने कथ्य को विस्तार देते हुये भास्करन ने अपनी मुस्कान की कुटिलता को कुछ और धारदार किया,
"आप जानवरों या गाय-भैंसों को कैसे भगाते हैं ? ..हः.. हाः.. होः.. हुर्रर्र... ऐसे ही न ? अपनी बातचीत को सुनिये तो लगभग हर पंक्ति का अंत क्या होता है ? .. है, हैं, हो, हूँ, ..  अब ये बताइये कि हिन्दी न जानने वाले लोगों को क्या लगेगा, मानों जानवर भगा रहे हैं ! तो क्या ये नहीं हो गयी गरेड़ियों-चरवाहों की भाषा ?"
सच कहूँ तो हिन्दी भाषाभाषी होने के बावज़ूद मैं हिन्दी भाषा की इस दशा से बिलकुल अनजान था. हिन्दी के प्रति इस कोण से सोचने का अवसर ही नहीं मिला था. अपने कहे का इस तरह बुमरैंग हो कर वापस आना मुझे बिल्कुल नागवार गुजरा था. बात अब नाक की हो गयी थी. हिन्दी की नहीं भाई, अपनी नाक की !  लगा इन भास्करन महोदय से भला कैसे हार जाऊँ ? फिर भी अपने आप को थोडा़ संयत किया और हिन्दी के सबसे भरोसेमन्द रूप को पकडा़,
"देखो भाई, हिन्दी में जो लिखा जाता है वही पढा भी जाता है. यहाँ दूसरी भाषाओं की तरह नहीं है कि शब्दों के उच्चारण में पढ़ने वाले को अपने शब्द-भण्डार और अपनी समझ पर निर्भर रहना पड़ता हो. आप लोगों के यहाँ तो अक्षर ऐसे हैं कि तमिल में ’कथा पे खाना खाने आना है’ लिखा है तो उसे ’गधा बेगाना गाने आना है’ पढा़ जा सकता है. हिन्दी के कवर्ग, चवर्ग या पवर्ग या किसी वर्ग आदि का मतलब ही नहीं है. तमिल भाई लोग अपने नाम के इनिशियल तक अंग्रेजी वर्णमाला के अक्षर से करते हैं, क्योंकि तमिल में वैसे अक्षरों के उच्चारण ही नहीं होते.. "
 
इस बहसबाजी में मैं कुछ ज्यादा ही पर्सनल होता जा रहा था. लालाभाई ने माहौल को समझा जो अभी तक एक श्रोता की तरह आनन्द ले रहे थे. इस बोझिल हो रहे माहौल को हल्का करने के लिये हँसते हुये कहा,
"भाई, अंग्रेजी में वर्ण ज्यादा हो कर ही क्या हुआ, जब उन्हें लिखने के बाद भी नहीं पढा जाता ! कम से कम हिन्दी में तो लोप या साइलेंट का बखेडा़ नहीं है. अंग्रेजी के इस लोपकरण ने परीक्षाओं में कई-कई विद्यार्थीयों के नम्बर ही लोप करा दिये हैं. बोलने के मामले में तो अंग्रेजी और भी अज़ीब है. एक ही अक्षर के अलग-अलग उच्चारण होते हैं. अब देखिये, डोर और पुअर का भयंकर अंतर ! डू और गो का चुटकुला तो अब नये बच्चों के लिये भी पुराना हो चुका है.’ अब लालाभाई के इस कहे पर सभी लगे हें हें हें करने.
 
तभी तिवारी जी अपनी साँसों और दुहरे हुए बदन को संभालते हुए आते दिखायी दिये. वे शाम की एक्सरसाइज का कोटा पूरा कर के आ रहे थे. पसीना पोंछते हुए सीधे धम्म से आ कर बीच में बैठ गये और सामने के जूस-कार्नर से सभी के लिये अनारशेक लाने का आर्डर दे दिया. भाई, वो तिवारीजी ठहरे. हमसभी ने कुछ शिष्टाचारवश और ज्यादा शेक के लिये मुख पर चौडी़ मुस्कान चिपका ली. शेक पीने के बाद महौल थोड़ा ठंढा हुआ दिखा. लेकिन भास्करन तो जैसे अपनी सारी खुन्नस आज ही निकालने के मूड में तने बैठे थे. यहाँ तक कि अनारशेक का ठंढा ग्लास भी उन्हें सु्कून नहीं दे सका था. बात को आगे बढाने लगे. लग गया कि अगले बमगोले के साथ तैयार हैं. उन्होंने कहा,
"हिन्दी में जो लिखा जाता है, वो ही पढा जाता है.  लेकिन वैसा ही किया भी किया जाता है क्या ?"
 
तिवारीजी तुरत ही प्रवचन के मूड में आ गये. आजकल जब से एक से एक घोटालों का पर्दाफ़ाश होने लगा है, वो टीवी पर से नये-नये लोप हुए एक बाबाजी का समागम ज्यादा करते फिर रहे हैं.  तुरत ही उन्होंने भास्करन की बातों का जैसे समर्थन किया,
"एकदम ठीक कहा आपने अन्ना भाई,  कोई अपने खुद का कहा नहीं करता. अब तो बेईमानी, मिथ्यावचन.. भ्रष्ट-आचरण जैसे अपने समाज का स्वभाव होता जा रहा है.  नैतिकता का तो पूरी तरह जैसे नाश ही हो चुका है.."
तिवारीजी ने मानों कोई रटा-रटाया जुमला टेप की तरह बजा दिया गया था.
 
भास्करन ने तिवारीजी को टोकते हुये कहा,
"मैंने इतनी हाई-फाई बात नहीं की है भाई... मेरे कहने का बस इतना-सा मतलब है कि क्या हिन्दी के लिखे वाक्यों की क्रिया को आप सही में पूरा करते हैं ?"
सभी ने एक दूसरे की आँखो में देखा और हमने अपने-अपने सिर स्वीकारोक्ति में एकसाथ हिला दिये. भास्करन ने छूटते ही कहा,
".. तो फिर बैठे हुए चलके दिखाइये... "
इस पर तो सभी फिरसे एक दूसरे का चेहरा देखने लगे. लेकिन इस बार सभी के भाव अलग-अलग थे. लालाभाई ने सीधा मतलब ही पूछ लिया,
"अमा, ये क्या जुगाली कर रहे हो भाई?"
भास्करन ने खुलासा किया,
"आप लोग हिन्दी में किसी से कहते हैं न... ’बैठ जाओ’, ’सो जाओ’, और तो और ’आ जाओ’.. अब ये बताइये कि अगर कोइ बैठ गया तो मतलब ये हुआ कि उसकी क्रिया की गति समाप्त हो गयी है. फ़िर भी अगर उसे चलना कहा जाय तो वो क्या चलेगा ! बल्कि इस तरह की किसी क्रिया को फुदकना ही कहेंगे. .. अब देखिये, आप किसी बच्चे से कहते हैं ’आजा’. अब बताइये कि वो आपके किस आदेश का पालन करे ? वो आयेगा या जायेगा ? अगर उस बेचारे ने ऐसा कुछ करना चाहा भी तो एक ही जगह पर ही आगे-पीछे डोलता रहेगा. आ.. जा.. आ.. जा..  या, ’सो जा’ कहने पर एक सामान्य व्यक्ति के लिये ऐसा करना संभव ही नहीं है. अगर कोई ऐसा कुछ करता भी है तो वो ये एक बीमारी है. इस विषय पर फिल्में भी बन चुकी हैं. .."  
 
हम सभी के सभी उनकी बातों पर निरूत्तर हुए जा रहे थे. 
इधर भास्करन तो जैसे हमारी बेदम हुई बल्लेबाजी को देख कर आज यार्कर पर यार्कर मारे जा रहे थे. इसी में आगे उन्होंने अगला जुमला दे मारा,
"भाई, हिन्दी में तो निर्जीव वस्तुओं का भी लिंग-निर्धारण कर दिया जाता है. .. एक कटोरी तो दूसरा कटोरा ! या वो भी नियत नहीं..  एक कटोरी कब किसी के लिये कटोरा हो जाये कुछ नहीं कहा जा सकता. एक बच्चे के लिये जो कटोरा होगा वो ही किसी भद्र जन के लिये कटोरी होगी...!"
 
लालाभाई ने तो इस पर बेजोड़ मजा लिया, "... बलियाटी लोग तो हाथी का भी पुल्लिंग किये बैठे हैं....हाथा... हा हा हा...."
 
भास्करन की बात भले बेढब सी लग रही थी, लेकिन हम सभी के सभी निरुत्तर हो चुके थे. आँखो ही आँखो में हार मान चुके थे. हमारी सोच और हमारे विचार-मंथन के साथ शाम भी लगातार गहरी होती जा रही थी. मैंने अपने सिर के ऊपर एक-दो बार हाथ झटक कर कहा,
"चलिये भाई घर चलते हैं बहुत मच्छर काट रहे हैं. .."
लेकिन सच्चाई तो यही थी कि भास्करन के कटाक्ष मच्छरों से भी ज्यादा जोर से डंक मार रहे थे. सही भी है, हर भाषा की अपनी विशेष सुन्दरता और अलग गरिमा होती है. जिसकी अपनी परिपाटी हुआ करती है. कोई हो, इस मामले में अपनी नाक ज्यादा ऊँची क्या रखनी.. .
 
--शुभ्रांशु
 

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Comment

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Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on October 21, 2012 at 2:40pm
आदरणीय शुभ्रांशू सर जी!हिन्दी की भी बखिया उधेड़ दिया आपने,कमाल है।जैसा संदीप भाई जी ने कहा हर भाषा की अपनी सम्प्रेषणीयता होती है।सत्य है।संसार में कोई भी वस्तु पूर्ण नहीं है।कुछ न कुछ कमी हर किसी में है।हमारी हिन्दी भी इससे कुछ अछूती नहीं।कुछ लोग अंग्रेजी भाषा के डैडी को डेड (मरा हुआ),मम्मी को ताबूत काकटेल को कौवे की पूंछ आदि कहते हैं।लेकिन शायद कुछ शब्द हमारे यहां भी ऐसे हैं जहां शंका हो सकती है जैसे-दशरथ जी के पिता का नाम 'अज' क्या वो बकरे थे,या 'लड़का' क्या वह लड़ने झगड़ने से सम्बंधित नहीं है, या 'राष्ट्रपति' एक प्रजातांत्रिक देश ''जहां जनता का शासन जनता के द्वारा जनता के लिए होता है'' में कोई देश का मालिक भी होता है,या 'फूल' क्या यह फूलना या फूला (मृतक को जलाने के बाद बचा राख) आदि।भाषा भाषा होती है हर भाषा की अपनी अलग विशेषता होती है।
फिरहाल एक अच्छे हास्य लेख के लिए भूरि भूरि हार्दिक बधाई।
Comment by Shubhranshu Pandey on October 21, 2012 at 8:24am

आदरणीया राजेश कुमारी जी, मेरी रचना के साथ अपनी घटना का उल्लेख कर मेरी रचना पर जो विश्वास तथा समर्थन दिया है उसके लिये आपका तहे दिल से आभारी हूँ,

हमारे देश की विशालता कई बार अपने विभिन्न आयामों में हास्य का पूरा माहौल तैयार कर के देती है. बस उसे जीने और आनन्द लेने की बात है...

आपका हार्दिक रूप से शुक्रगुजार हूँ.

Comment by Shubhranshu Pandey on October 21, 2012 at 8:09am

आदरणीय वीनस जी, आज कल नेट कनेक्शन कटने से और कुछ तो कनेक्ट नहीं कर पा रहा हूँ तो यही सही...

आपके उत्त्साह वर्धक विचारों के लिये धन्यवाद. लेखक ऎसी प्रतिक्रिया के लिये लालायित रहता है. एक बार फ़िर से धन्यवाद...

Comment by Shubhranshu Pandey on October 18, 2012 at 8:44am

विस्तार ही जीवन है.......

अभी तक इसी विचार के साथ अपने आयामों को गढता आ रहा हूँ.. या सभी इसी तर्ज पर आगे बढते हैं. लेकिन कभी-कभी यही विस्तार किसी अन्य के लिये संकुचन का कार्य करता है..आज कल शहर में सड़कों का विस्तार हो रहा है, इसी विस्तार ने मुझे नेट की दुनिया में संकुचित कर दिया है, टेलिफ़ोन लाइन काट कर.... पिछले बीस दिनों से नेट की दुनिया में सभी से दूर हूँ. 

कारण सहित माफ़ी चाहता हूँ आपको मेरी प्रस्तुति पर आने के एवज में धन्यवाद न दे पाने के लिये.. अभी बस जुगाड़ के साथ ही उपस्थित हो पा रहा हूँ..


सादर

Comment by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on October 15, 2012 at 8:44pm

 शुभ्रांशु जी नमस्कार ! भाई भाषा विवाद पर बड़ी चुटकीली प्रस्तति रही। 
बहुत सुन्दर रचना। शुरू से अंत तक बंधे रहे ....बहुत बहुत बधाई 

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on October 15, 2012 at 9:32am

आदरणीय शुभ्रांशु जी सादर प्रणाम
बहुत सुन्दर तरीके से एक बड़ी समस्या की ओर इंगित किया है आपने
भाषाई विवाद यूँ तो एक बड़ी और जटिल समस्या रही है और शायद इसका कोई हल भी नहीं है क्यूंकि भाव और सम्प्रेषण हर भाषा के शब्दों में ही निहित है
जिसे भाषा का ज्ञान ही नहीं हो वो तो अन्यथा ही बेभाव की खायेगा
आपके व्यंग आलेखों की खासियत यही है की इसमें समस्याएं गंभीर रूप न लेकर चुकती लेते हुए मुखर होती है कहीं हास्य देती हैं तो कहीं सोचने पे मजबूर भी कर देती हैं
इस बार भी आपने कमाल किया है
अभी तो मच्छर ने बचा लिया है लेकिन गहरे जख्म जब भर रहे होंगे तब आप अपने नाखून की बेचैनी को कैसे रोकेंगे
बहुत सुन्दर व्यंग कसा है बहुत बहुत बधाई आपको इस सुन्दर व्यंग रचना हेतु
हम तो आपके फैन हैं बस इंतज़ार रहता है के अब किसका न. है कौन आने वाला है आपके तीक्ष्ण व्यंग बाणों के समक्ष
बेहतरीन


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 15, 2012 at 8:56am

ha ha ha ha ha :-))))))))))


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 15, 2012 at 8:52am

गणेश भाई, कल ही रविवार चौदह अक्तूबर की सायं इलाहाबाद में गुफ़्तग़ू द्वारा साहित्यिक गोष्ठी आयोजित थी और शुभ्रांशुजी रस ले-लेकर श्रोताओं के समक्ष इस व्यंग्य का पाठ कर रहे थे. भाई वीनस ने उसी दरम्यान कहा था, ’.. हम तो इस व्यंग्य को पढ़ते समय ही बाग़-बाग़ हो गये थे, बाग़ी जी तो बाग़ा-बाग़ा हो जायेंगे !’  

देख रहा हूँ, आपने हाथा को वाकई बक़ायदा समझ लिया है.. हा हा हा हा.. 

भाईजी,  हम छुटपन में कई-कई पारिवारिक समारोहों में ये ब्ब्बड़हन दाँत-आला हाथा  पर कई-कई दफ़े चढ़े हैं !..   :-))))))


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 15, 2012 at 8:41am

भाषा की जिंगोइज़्म पर क्या खूब फटकारी कलम चली है ! वाह-वाह ! और, ’नाक’ की ऊँचाइयों के फेर में कैसे-कैसों की क़द कैसी-कैसी होती गयी है, यह सारा कुछ हमारा समाज सन् पचास से लगातार देख रहा है. भाषा समाज हेतु मात्र संप्रेषण और स्वीकृति की इंगित न हो कर स्व-आरोपण का मुद्दा बनती जा रही हैं.  अवश्य कहना होगा, कि इस व्यंग्य लेख के कथ्य में निर्मित हुआ वातावरण और पात्रों के परस्पर संवादों के पीछे की मनोदशा तथा तदनुरूप आवश्यक मानसिकता बहुत सुन्दर तरीके से उभर कर आयी हैं.

अति संवेदनशील विषय को इस बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत करने के लिये हार्दिक शुभकामनाएँ तथा बधाइयाँ. सतत प्रयासरत रहें, लेखन-कला उत्तरोत्तर समृद्ध होती जायेगी.

शुभ-शुभ

Comment by seema agrawal on October 14, 2012 at 10:08pm

जबदस्त अंत किया है आलेख का शुभ्रांशु जी ...शायद इस झंझट का सही निर्णायक एक मच्छर ही हो सकता था जो हर किसी से उसकी ही भाषा में बात करता है ..सर्वभाषा ज्ञानी 
जिस विवाद को आपने सामने रखा है वो सच में एक गंभीर विषय है.... स्थिति यदि इससे उलट होती अर्थात यदि हम अच्छाइयों को खोजने में समय लगाते तो शायद हर भाषा का भला हो सकता था ...(पर फिर आप यह व्यंग  न लिख पाते )

 //अपने कहे का इस तरह बुमरैंग हो कर वापस आना मुझे बिल्कुल नागवार गुजरा था. बात अब नाक की हो गयी थी. हिन्दी की नहीं भाई, अपनी नाक की !// बहुत सही मानसिकता को पकड़ा है आपने
एक मेरी बंगाली मित्र जो मुझे अपनी गाडी में लिफ्ट की सुविधा देने वाली थी ,ने अपनी  बात मुझसे कुछ यूँ कही
 "सीमा तुम तैयार रहना मै तुम्हे घर से उठा लूंगी ".....अब बताइए भला भाव को समझूं या शब्द को :))

एक बहुत बढ़िया आलेख के लिए बहुत बहुत बधाई 

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