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जहाँ से यथार्थ की दहलीज

खत्म होती है

वहाँ से हसरतों का

सजा धजा बागीचा

शुरु होता है

जब भी कदम बढ़ाया

दहलीज फुफकार उठती है

यह कहकर कि

‘मत लांघना मुझे

मेरे भीतर सुरक्षित हो तुम

मेरे ही भीतर संरक्षित हो तुम

यह असत्य भी तो नहीं

इस दहलीज के भीतर

एक मकान है

जहाँ सुरक्षित है मेरी काया

जहाँ छू भी नहीं पता

कोई बुरी नजर का साया

और अस्तित्व?

हाँ!  अस्तित्व

सुरक्षित है

अलमारी के किसी रैक में

बिस्तर के किसी कोने में

फिर भी .....

हाँ फिर भी ..

लांघना है यह दहलीज

ताकि गिरवी रखी नीन्द

खौफ के उस निगोड़े महाजन से

छुड़ा सकूँ

जानती हूँ मैं भी

आसमान की सैर

उंगली पकड़्कर

नहीं होती

इसके लिए तो

ज़ज्बे का पंख उगाना होता

अब कोई मेरे पीछे मत आना

मुझे अब पंख उगाना है

और आसमान की सैर पर जाना है

दहलीज तुम यहीं रहना

दरवाजे के कलेजे से

चिपकी हुई

लौटूंगी मैं

अपने साथ एक घर लेकर

तुम यहीं रहना ...

********

गुल सारिका 

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 23, 2012 at 1:58pm
बहुत सुन्दर दिल को छू जाने वाली अभिव्यक्ति...
 एक वाक्य लिखने से रोक नहीं पा रही खुद को...
BOUNDRYLESS  INFINITE...... SO AM  I !!!!
हार्दिक बधाई इस लेखनी पर.

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