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भ्रम जीने का पाल रहा हूं

भ्रम जीने का पाल रहा हूँ
जग सा ही बदहाल रहा हूँ
फटा-चिटा कल टाल रहा हूँ
किसी ठूँठ सा जड़ित धरा पर
भ्रम जीने का पाल रहा हूँ

 
हरित प्रभा, बिखरी तरुणाई
पतझड़ पग जब फटी बिवाई
ओस कणों पर प्यास लुटाए ...
घूर्णित पथ बेहाल चला हूँ
भ्रम जीने का पाल रहा हूँ

 
पतित-पंथ को जब भी देखा
दिखी कहाँ आशा की रेखा
बड़ी तपिश, था झीना ताना
फिर भी दुलकी चाल चला हूँ
भ्रम जीने का पाल रहा हूँ

 
बूढ़ी गलियाँ, शहर, इमारत
छौंक गया चीलों का गारद
अब अपनी ही कब्र जोतकर
बीज कमल के डाल रहा हूँ
भ्रम जीने का पाल रहा हूँ

 

 

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Comment

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Comment by अशोक पुनमिया on August 22, 2012 at 1:52pm

बहुत ही सुन्दर रचना.

रचना का शिल्प,एक मंझे हुए रचनाकार का प्रतिबिम्ब साफ़-साफ़ दिखा देता है.
बधाई स्वीकारें.
Comment by राजेश 'मृदु' on August 22, 2012 at 1:24pm

रेखा जी, संदीप जी, सौरभ जी, बागी जी एवं अलबेला जी आप सबके उद्गार से बहुत सहारा मिला इसी तरह अपना स्‍नेह बनाए रखें । छंदसिक रचनाओं को लिखने के लिए बड़ी मेहनत लगती है और मेरे हिसाब से उसके लिए अनुभव भी होना चाहिए । इसपर थोड़ा सीखने के बाद प्रयास करूंगा, सादर

Comment by Rekha Joshi on August 22, 2012 at 1:06pm

बूढ़ी गलियाँ, शहर, इमारत
छौंक गया चीलों का गारद
अब अपनी ही कब्र जोतकर
बीज कमल के डाल रहा हूँ
भ्रम जीने का पाल रहा हूँ,बहुत बढ़िया ,बधाई 

 

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on August 22, 2012 at 12:43pm

बहुत सुन्दर भाव पूर्ण कविता के लिए आपको बहुत बहुत बधाई आदरणीय झा साहब
कविता में प्रवाह छंदात्मक सा जान पड़ता है
शब्द चयन भी बेजोड़ है रचना पढ़ते पढ़ते अपने आप ही प्रवाह पूर्ण वाह निकल जाता है


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 21, 2012 at 9:30pm

भाई राजेश झाजी, आपकी कविताएँ सांस्कारिक हुआ करती हैं. यह उस दौर की याद दिलाती हैं जब रचनाएँ शुद्ध भावों का सम्यक प्रवाह हुआ करती थीं. हार्दिक बधाई स्वीकार करें.

आदरणीय अलबेलाजी ने कब्र खोदना  मुहावरे को ही रखने का सुझाव दिया है, लेकिन मेरा मत आपके साथ है. कविता की भाव-दशा के अनुसार कब्र जोतना  एक सही प्रयोग है. 

वैसे आपका छंदसिक रचनाओं पर भी हाथ आजमाना श्रेयस्कर होगा, राजेश भाईजी.

सादर


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 21, 2012 at 9:26pm

वाह वाह आदरणीय राजेश कुमार जी, क्या खुबसूरत कविता कि प्रस्तुति, कथ्य, शिल्प, भाव सब उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति, बधाई स्वीकार कीजिये |

Comment by Albela Khatri on August 21, 2012 at 8:35pm

वाह वाह
क्या कहने  इस गीत के.........वाह !
बहुत खूब

हरित प्रभा, बिखरी तरुणाई
पतझड़ पग जब फटी बिवाई

ओस कणों पर प्यास लुटाए ...

घूर्णित पथ बेहाल चला हूं
भ्रम जीने का पाल रहा हूं

__हाय हाय हाय मज़ा आगया ......बस एक बात थोड़ी खटकी.........मेरे ख्याल से कब्र को  जोतने के बजाय सिर्फ़ खोद ही देते तो बेहतर था, ऐसा मेरा निजी विचार है ..बुरा नहीं मानना भाई...वैसे अपने भी कुछ सोच के ही लिखा होगा

बहरहाल  बधाई !
 

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