वो बच्चा
बीनता कचरा
कूड़े के ढेर से
लादे पीठ पर बोरी;
फटी निकर में
बदन उघारे,
सूखे-भूरे बाल
बेतरतीब,
रुखी त्वचा
सनी धूल-मिटटी से,
पतली उँगलियाँ
निकला पेट;
भिनभिनाती मक्खियाँ
घूमते आवारा कुत्ते
सबके बीच
मशगूल अपने काम में,
कोई घृणा नहीं
कोई उद्वेग नहीं
चित्त शांत
निर्विचार, स्थिर;
कदाचित
मान लिया खुद को भी
उसी का एक हिस्सा
रोज का किस्सा,
चीजें अपने मतलब की
डाल बोरी में
चल पड़ता है
आगे,
अपने नित्य के
अनजाने या फिर
अंतहीन सफ़र पर,
शायद
कल फिर आना हो
चुनने
कुछ छूटे टुकड़े
जिंदगी के|
Comment
कुमार गौरव जी,
आदरणीय सर, बहुत ही मार्मिक रचना।
दिल मे बहुत गहरे तक उतर जाती है।
शायद
कल फिर आना हो
चुनने
कुछ छूटे टुकड़े
जिंदगी के|
एक आह सी निकल जाती हे।
चीजें अपने मतलब की
डाल बोरी में
चल पड़ता है
आगे,
अपने नित्य के
अनजाने या फिर
अंतहीन सफ़र पर,
शायद
कल फिर आना हो
चुनने
कुछ छूटे टुकड़े
जिंदगी के|
श्री कुमार गौरव जी , जिंदगी की हकीकत को बहुत सटीक शब्दों में व्यक्त किया है आपने ! क्या यही इनकी नियति है या कुछ बदल सकता है ?
वो बच्चा सच्चा रुखी त्वचा, नियमित करता सफ़र नहीं उसको कोई खबर | परिस्थितियों का मार्मिक चित्रण के लिए बधाई
आदरणीय सुरेन्द्र शुक्ल जी, सराहना के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद| एक तरफ यहाँ के कुछ लोग दुनिया के टॉप टेन अमीरों की सूची में आते हैं तो दूसरी तरफ कुछ के पास अपना और अपने परिवार का पेट पालने के भी पैसे नहीं होते....दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में "लोक" की ऐसी दुर्दशा बड़े आश्चर्य की बात है....
आदरणीय सौरभ पाण्डेय सर, सर्वप्रथम तो सराहना के लिए आपका हार्दिक आभारी हूँ......निर्धनता एक ऐसी बीमारी है जो मनुष्य को विचित्र मानसिक अंतर्द्वंदों में डाल देती है.......कभी वो उससे लड़ने की कोशिश करता है तो कभी बिना लड़े ही हार जाता है....लेकिन इतना तो तय है कि निर्धन मनुष्य अपने मन को इतना गिरा लेता है कि उसे किसी भी चीज से नाक-भौं सिकोड़ते नहीं देखा जाता| गन्दी से गन्दी जगह पर सोना, कुछ भी खा लेना ये सब उसकी रोज की आदतें हो जातीं हैं......
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