वो देखो सखी
फिर रक्ताभ हुआ नील गगन
बढ़ रही हिय की धड़कन
विदीर्ण हो रहा हैमेरा मन
बाँध दो इन उखड़ी साँसों को ,
अपनी श्यामल अलकों से
भींच लूँ कुछ भी ना देखूं
मैं अपनी इन पलकों से
झील के जल में भी देखो
लाल लहू की है ललाई
कैसे तैर रही है देखो
म्रत्यु दूत की परछाई
थाम लो मुझको बाहों में
जडवत हो रही हूँ मैं
दे दो सहारा काँधे का
सुधबुध खो रही हूँ मै
क्या सखी तूने सुनी
अभी जो आवाज आई है
क्या अरि ने विजय की
रणभेरी बजाई है ?
ना सखी सच ये आभास नहीं है
क्यूँ तुझको विश्वास नहीं है
यह कोई रक्तार्श नहीं है
जल में नहीं कोई रक्तरंजित साया
ये तो हिलते दरख्तों की छाया
सांझ ढले की लाली है ये
संध्या की चुनर मतवाली है ये
गगन को देखो पलकें उठाकर
नभचर उड़ रहे कतारें बनाकर
ध्यान से देखो अपनी ध्वजा है
युद्ध विराम का बिगुल बजा है
अब रणांगन से लौटेंगी खुशियाँ
गले मिलेंगी हम सब सखियाँ
बुझा दो जो हिय में अगन जले
चल सखी थाल सजाएं हम
आ चल अब घर लौट चलें
आ चल अब घर लौट चलें
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Comment
आदरणीय राजेश जी नमस्ते, सुंदर रचना के लिए हार्दिक बधाई
उमाशंकर मिश्र जी आपके तारीफ़ के शब्दों ने मेरी लेखनी को स्फूर्ति प्रदान की हार्दिक रूप से आभारी हूँ
बहुत बढ़िया चित्रण आदरणीय राजेश कुमारी जी आपकी रचना और प्रकृति का साथ आपकी कविताओं.में सौंदर्य भर देता है
पाठक को गहन चिंतन करने को बाध्य करती रचना
बधाई ..बहुत सुन्दर रचना
योगी सारस्वत जी बहुत बहुत शुक्रिया आपको मेरी रचना पसंद आई
लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला जी बहुत बहुत हार्दिक आभार
ना सखी सच ये आभास नहीं है
क्यूँ तुझको विश्वास नहीं है
यह कोई रक्तार्श नहीं है
जल में नहीं कोई रक्तरंजित साया
ये तो हिलते दरख्तों की छाया
सांझ ढले की लाली है ये
संध्या की चुनर मतवाली है ये
गगन को देखो पलकें उठाकर
नभचर उड़ रहे कतारें बनाकर
ध्यान से देखो अपनी ध्वजा है
युद्ध विराम का बिगुल बजा है
बहुत बढ़िया शब्द और सुन्दर प्रस्तुति !
क्या अरि ने विजय कीरणभेरी बजाई है ?बुझा दो जो हिय में अगन जले,चल सखी थाल सजाएं हम, आ चल अब घर लौट चलें,
बहुत सुन्दर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई राजेश कुमारीजी
सौरभ जी आपका बहुत बहुत हार्दिक आभार आपको मेरी रचना पसंद आई |
आदरणीया राजेश कुमारी जी, किसी रणबाँकुरे की भार्या की हाँ-ना की कश्मकश को बहुत ही दिल से उकेरा है आपने.
बहुत खूब. सादर
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