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आग उगलते सूरज का रथ
दौड़ रहा था
अनवरत, अन्तरिक्ष पर
पीछे जन्म लेते
धूल के गुबार ने ढक
दिए सब वारि के सोते
कुम्भला गए दम घोंटू
गर्द में कोमल पौधों के पर
चिपक गए परिधान बदन से
हाँफते हुए ,पसीनों से लथपथ
उसके अश्वों के स्वेद सितारे
छितरा गए सागर की चुनरी पर
मिल गए खारे सागर की बूंदों से
जबरदस्त उबाल उठा
सागर के अंतर में
प्यासी धरा की आहें
कर बैठी आह्वान
मंथन से मुक्त होकर
उड़ चला वो वाष्पित आँचल
सुदूर गगन में
मेघ श्रंखला को ढकने
खोल दिए पट अभ्र्पारों ने
चुका दिया धरा का ऋण
खुल के बरसे मूसलाधार |

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 28, 2012 at 8:42am

उमा शंकर मिश्र जी इतनी सुन्दर समीक्षात्मक टिपण्णी हेतु हार्दिक आभार 

Comment by UMASHANKER MISHRA on June 28, 2012 at 12:11am

क्या बात है  आदरणीय राजेश कुमारी जी आधुनिक कविता ही कहेंगे वर्तमान में यह काव्य की धार प्रगति शील विचारधारा  वादी है

बहुत ही सुन्दर चित्रण किया है आपने ..हमारी कल्पना को सूरज के रथ पर बैठा कर निचे पृथ्वी की और झांकते हुवे हमने वर्षा की

अद्भुत बूंदों को देखा समुद्र से वाष्पित होते जल बूंदों के वाष्पन को देखा प्यास से कराहती धरती को देखा प्यासी धरती के प्यास को बुझाते देखा और धरती को झूमते खुश होते देखा ..अद्भुत चित्रण बधाई हो ...


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 27, 2012 at 8:50am

डा .सूर्या बाली जी आपकी प्रतिक्रिया से मेरी लेखनी को बल मिला हार्दिक आभार आपका |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 27, 2012 at 8:48am

अरुण कुमार निगम आपके इस उन्मुक्त ह्रदय से तारीफ़ सुनकर मेरी लेखनी का उत्साह वर्धन हुआ आपको बहुत -बहुत हार्दिक आभार 

Comment by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on June 27, 2012 at 1:43am

राजेश कुमारी जी सादर नमस्कार ! सुंदर कविता ने मन मोह लिया। बहुत ही साहित्यिक और उम्दा रचना। बधाई स्वीकार करें !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on June 26, 2012 at 10:52pm

अद्भुत, अद्भुत, अद्भुत

ग्रीष्म और वर्षा को एक ही कैनवास पर इस तरह उतरा हुआ पहले कभी नहीं देखा. अद्भुत कल्पना की उड़ान है. धूल के गुबारों में जल स्त्रोतों का ढँकना, कोमल पौधों का कुम्हलाना, अश्वों के स्वेद सितारों का सागर की चुनरी पर लहरा जाना, वाष्पित आँचल का उड़ जाना और फिर मूसलाधार बारिश, वाह ! तन-मन भीग गया. बेहतरीन कल्पना के लिये बधाई स्वीकार करें.

Comment by Albela Khatri on June 26, 2012 at 10:46pm

अगले जनम में अगर मैं  घोड़ा बना तो खिला देना ...इस जनम में तो चांस नहीं ...हा हा हा


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 26, 2012 at 10:40pm

अलबेला जी आपको हम भी चना मसाला खिला कर छोड़ेंगे महिलाएं अपनी जिद भी मनवा लेती हैं 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 26, 2012 at 10:38pm

प्रदीप कुमार कुशवाह जी आपका हार्दिक अभिनन्दन 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 26, 2012 at 10:31pm

कविता किसी भी अंत की हो 

भावों से सजी सामयिक संत सी हो 

पड़े रह जाओगे विधा के चक्कर में 

चूर हो जाओगे इसी टक्कर में 

नारा  लगाते हो जग में हो भाई चारा 

फिर क्यों नफरत का भोग लगाते हो. 

हिंदी हैं हम वतन हैं 

प्यारा हिन्दुस्तान हमारा 

जरूरत है पानी की भिगो दो भारत सारा 

मरे न कोई भूखा दिखे सब हरियारा 

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