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एक अर्थशास्त्रीय कविता, जीडीपी की माया-

जीडीपी से नौकरी,
ये अर्थशास्त्र कभी समझ न आया,
क्यों उगलते हैं कारखाने काला धुंआ,
जीडीपी ने कभी नहीं बताया,

सोचो ज़रा आसमान में,
सुराख किसने है बनाया,
क्यों झुलसाती है सूरज की किरणे इतना,
जीडीपी ने कभी है बताया,

सिगरेट छोड़ने से बचेगा पैसा,
पर, क्या, कोई अमीर बन पाया,
फिजूल खर्ची खूब करो,
पर, सोचो, क्या भूखे को निवाला पहुंचाया,

नून,तेल,हल्दी बेचने
क्यों बुलाते हो वालमार्ट को,
ऐसे ही बना था देश गुलाम,
क्या जीडीपी ने तुम्हें बताया,

खूब सजा सवांरकर रुपये को तुमने,
पौंड, यूरो और डॉलर के बगल बिठाया,
कभी ब्रिटेन, अमेरिका और यूरोप तरसे थे,
जिसके लिए, उसी को उन्होंने लतियाया,

याद रखो, इतिहास हम ही लिखते हैं,
तब तुम्हें सिंहासन मिलते हैं,
जम्हूरियत की कसम, हम न होंगे हम,
यदि तुम्हें इतिहास के कूड़ेदान में न फिकवाया,

जितनी बढ़ी तुम्हारी जीडीपी,
उतनी कभी न बढ़ी हमारी मजूरी,
हमारी मेहनत, खाते तुम हो,
बस है यही जीडीपी की माया,

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Comment

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Comment by Saurabh Pandey on June 14, 2012 at 4:13pm

इस रचना के लिये आदरणीय अरुणजी को मेरी सादर बधाइयाँ.

नून,तेल,हल्दी बेचने
क्यों बुलाते हो वालमार्ट को,
ऐसे ही बना था देश गुलाम,
क्या जीडीपी ने तुम्हें बताया,

इतनी स्पष्टता के पश्चात अब बचता ही क्या है.. .  

अर्थशास्त्रीय शब्दावलियों में बहुत अच्छी कोशिश के लिये पुनः धन्यवाद.

 

Comment by अरुण कान्त शुक्ला on June 14, 2012 at 3:30pm

आप सभी महानुभावों का मुझे प्रोत्साहित करने के लिए आभारी हूँ |

Comment by Albela Khatri on June 14, 2012 at 1:05pm

आदरणीय  अरुण कान्त  शुक्ल जी,
बहुत ही स्वधे हुए अंदाज़ में आपने सच बयान कर दिया
आपको और आपके लेखन को सलाम !

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 14, 2012 at 11:15am

जितनी बढ़ी तुम्हारी जीडीपी,
उतनी कभी न बढ़ी हमारी मजूरी,
हमारी मेहनत, खाते तुम हो,
बस है यही जीडीपी की माया, 

आदरणीय अरुण कान्त जी, सादर अभिवादन 

बहुत ही सुन्दर तरीके से सत्यता का बखान किया . बधाई 

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on June 13, 2012 at 11:24pm
आदरणीय अरुण सर, बहुत सुन्दरता से आपने बहुत कुछ कह दिया। बधाई।
Comment by Bishwajit yadav on June 13, 2012 at 10:39pm
प्रणाम अरुण जी
समय का पहिया को पकड कर आपने बहुत सुन्दर तरिके से रचा है बधाई हो
Comment by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on June 13, 2012 at 9:57pm

अरुण जी सादर नमस्कार ! बिलकुल सही फरमाया है आपने इस कविता में। अच्छा विश्लेषण देश की स्थिति और जीडीपी का। बहुत उम्दा ! बधाई हो !

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