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बस्तियाँ हो गईं वीरान कहीं और चलें

शहर ये हो गया शमशान कहीं और चलें॥

बस्तियाँ हो गईं वीरान कहीं और चलें॥


कोई हिन्दू कोई मुस्लिम कोई ईसाई यहाँ,  

है नहीं कोई भी इंसान कहीं और चलें॥


जागने और जगाने की बात किससे करें,

यहाँ तो सोया है भगवान कहीं और चलें॥


कोई जोरू से कोई ज़र से ज़मीं से कोई,

हैं सभी लोग परेशान कहीं और चलें॥


आईना अंधों की बस्ती में बेंचने निकला, 

चल सकी न मेरी दूकान कहीं और चलें॥


दोस्त दुश्मन सभी चेहरे पे लगाए चेहरे,

कर सका मैं नहीं पहचान कहीं और चलें॥


वक़्त के साथ बदलते हुए चेहरे “सूरज”

देख के मैं भी हूँ हैरान कहीं और चलें॥

                  डॉ. सूर्या बाली “सूरज”

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on May 24, 2012 at 5:36pm

बहुत खूब बाली साहब, रदीफ़ बहुत ही बढ़िया उठाया है, आनंद आ गया, बढ़िया कहन, बधाई स्वीकार करें |

कृपया ध्यान दे...

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