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तेरे संग जीवन बीता था

बहुत दिनों तक !

कब सोचा था

तेरा जाना ऐसा होगा !

 

बिना प्रतीक्षा किए तुम्हारी

अब तो जल्दी सो जाता हूँ !

बुझा दिया करती थी जो तुम ,

दिया रात भर जलता है अब !

बतियाता है भोर भोर तक ,

कीटी-पतंगों से हँस-हँस कर !

खुश रहता हैं !

और पुराने चादर पर अब

नहीं उभरती ,

रोज–रोज की नई सिलवटें !

 

मैं भी सारी फिक्र भुला कर

सूरज चढ़ने तक सोता हूँ !

नही जगाती

अब कोई चूड़ी की खन-खन !

कानों को आराम मिला

बर्तन धोने की आवाजों से !

और ऊँघते होंठ ,

चाय की प्याली याद नही करते हैं ,

पहली चुस्की में अक्सर जल ही जाते थे !

 

साथ तुम्हारे मैं चलता था ,

घायल पैरों की छागल बन !

चलती थी तुम

धीरे–धीरे ,

संभल-संभल कर ,

रहता था संगीत अधूरा !

फिर तेरे कोमल हाथों ने

मेरी किस्मत के माथे पर

यादों का संदूक लिख दिया !

अब जीवन में सूनापन है !

 

तेरे बीन जीवन सूना था

बहुत दिनों तक !

फिर भी याद नही आती अब !

कब सोचा था

तेरा जाना ऐसा होगा !

 

 

 

.................................. अरुन श्री !

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Comment by Arun Sri on May 16, 2012 at 9:54am

राजेश कुमारी मैम ,सराहना के लिए धन्यवाद !

Comment by Rekha Joshi on May 16, 2012 at 12:06am

अरुण जी ,तेरा जाना सदा खलता है ,फिर भी दिल को समझाना तो होता है ,बहुत बढ़िया ,बधाई 

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on May 15, 2012 at 11:24pm

वियोग और श्रृंगार रस का संगम झलका ...अरुण जी विरही मन अपने को ऐसे ही शांत कर लेता है ..दिल की बात जुबाँ पर आई .जय श्री राधे 

भ्रमर५ 
Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on May 15, 2012 at 10:38am

bahut umda @arun shri ji ....................dil ke bahte ho jharne ko shabdon me samet liya aapne jabardast


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 14, 2012 at 9:02pm
अन्तः मन की सारी विरह वेदना...स्वतः ही लफ़्ज़ों में बह निकली और पता ही नहीं चला कैसे एक लंबा यादों का सफ़र एक पन्ने पर बखूबी उतर गया........वाह!
इस प्रावाह्मय खूबसूरत रचना के लिए हार्दिक बधाई..

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on May 14, 2012 at 8:58pm

भावनाओं का यह खुबसूरत सम्प्रेषण बहुत ही ससक्त है, वियोग शृंगार रस से ओत प्रोत एक अच्छी रचना , बधाई अरुण श्री |

Comment by आशीष यादव on May 14, 2012 at 6:24pm

विरह का दर्द पूरी तरह उभर कर सामने आया है। बहुत भावुक रचना बनी है। चित्रण सजीव सा होता दिख रहा है। आधुनिक गद्य कविता होते हुए भी एक लयात्मकता दिख रही है।

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 14, 2012 at 4:28pm

प्रिय  अरुण  जी , सस्नेह 

दिल को भा  गयी. 
बीते लम्हों की याद आ गयी 
आज तो हैं कल  न होंगी 
केवल याद, केवल याद, केवल याद 
बधाई.
Comment by MAHIMA SHREE on May 14, 2012 at 4:19pm
दिया रात भर जलता है अब !

बतियाता है भोर भोर तक ,

कीटी-पतंगों से हँस-हँस कर !

खुश रहता हैं !

और पुराने चादर पर अब

नहीं उभरती ,

रोज–रोज की नई सिलवटें ...विरह की खुबसूरत अभिवयक्ति .. समय के साथ उन यादो को भूलने की कसक भी ..बधाई आपको

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 14, 2012 at 1:12pm

बहुत मार्मिक विरह व्यथा की अगन में संतप्त हर्दय जब जलता है तो ऐसे ही भाव प्रकट होते हैं जो आपकी रचना ने बखूबी दर्शाए हैं ...बधाई 

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