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(प्रस्तुत रचना रोला छन्द में आबद्ध है।रोला के प्रत्येक चरण में11-13 पर यति(विराम) के साथ 24-24 मात्रायें होती हैं।चरणान्त में लघु गुरु की विशेष बाध्यता नहीं है।)

रहिमन आये याद,हमें तुम्हारा पानी।
घटा जलस्तर किन्तु,बढ़ा आंखों में पानी॥

मोती चूना और,मनुज सभी गये सूखे।
प्यासी सारी भूमि ,त्राहि-त्राहि जन चीखे॥

पिघल रहा हिमवान,जलधि तल ऊपर आया।
क्षरण परत ओजोन,काल की काली छाया॥

ऑक्सीजन में कमी,वायु में कार्बन भारी।
मलवे से है पटी,प्रदूषित नदियां सारी॥

खरबों रुपया खर्च,नदी को सफवाने में।
सारा रुपया साफ,नदी बस दिखलाने में॥

यूं ही जल का नाश,जगत में यदि है जारी।
महायुद्ध की बात? न! महाप्रलय तैयारी॥

धरा बचा लें नीर,बचाना जीवन चाहें।
यही भले की बात,यदि हम प्रलय न चाहें॥

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Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on August 31, 2012 at 8:29am
भाई छोटू सिंह जी आभार।
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on May 6, 2012 at 4:27pm
आदरणीय भावेश सर आपने बिल्कुल मेरे मन की बात किया है।सारा संसार आज अंध-विकास दौड़ में दौड़ रहा है।और यहां भी 'समरथ को नहि दोष गुंसाई' वाली बात चरितार्थ होती है।मैं आपको अपना 101% समर्थन देता हूं।लेकिन यहीं मैं अपना एक दृष्टिकोण रखता हूं और वह यह है कि दूसरों को प्रबोध देने से अच्छा है,सर्वप्रथम हम उसका पालन खुद करें किन्तु इसी तथ्य पर दुनिया के 99% लोग मुकर जाते हैं।पर्यावरण-अवनयन एक वैश्विक समस्या है जिसके सुधार में कोई भी व्यक्ति आनाकानी न करे,हर व्यक्ति को इस दिशा में एक कदम बढ़ाना ही चाहिए।पर्यावरण ऋण भी एक ऋण है।बिना इसको चुकता किये हम उऋण नही हो सकते।
रचना की सराहना के लिए बहुत-बहुत आभार।
Comment by Bhawesh Rajpal on May 6, 2012 at 2:38pm
आदरणीय  त्रिपाठी  जी ,  आपने पर्यावरण प्रदुषण पर जो लिखा है , उससे  उन सभी की आँखें खुल जानी चाहिए जो यह मान बैठे हैं क़ि पृथ्वी पर उपलब्ध संसाधन केवल उनके लिए ही हैं , 
आने वाली पीढियां हमें कभी क्षमा नहीं करेंगी ! इस धरा पर रहने वाले और आने वाले जीव अपने जीवनकाल में संसाधनों का उपयोग करने के तो  अधिकारी हैं, मगर दुरूपयोग 
करने के लिए नहीं ! देखा यह गया है - समर्थ  लोग  व् समर्थ देश पृथ्वी के संसाधनों का अंधाधुंध दोहन कर के अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं , क्या उनके मन में ज़रा भी वो
विचार नहीं आते , जैसा हम सोचते हैं ! ईश्वर सब को सद्बुद्धि दे  !
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on May 6, 2012 at 1:37pm
आभार आदरणीय कुमार साहब!
Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on May 6, 2012 at 12:28pm

विन्ध्येश्वरी प्रसाद जी , पानी के महत्व को बहुत सलीके से बताती रचना. बधाई.

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on May 6, 2012 at 9:35am
आदरणीय जवाहर लाल सर जी हार्दिक आभार।
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on May 6, 2012 at 9:33am
आदरणीय आशीष जी हार्दिक आभार।आपकी नेक हृदय को मेरा प्रणाम!
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on May 6, 2012 at 9:31am
आदरणीय वीनस जी हार्दिक आभार।आप भी कहां कम हैं श्रीमान?आप ही कह डालिए छंद के बारे में,आपका आदेश शिरोधार्य होगा।
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on May 6, 2012 at 9:27am
आदरणीय सुरेन्द्र सर जी हार्दिक आभार।
Comment by JAWAHAR LAL SINGH on May 6, 2012 at 6:36am

पिघल रहा हिमवान,जलधि तल ऊपर आया।
क्षरण परत ओजोन,काल की काली छाया॥

ऑक्सीजन में कमी,वायु में कार्बन भारी।
मलवे से है पटी,प्रदूषित नदियां सारी॥

त्रिपाठी जी बहुत सुन्दर आज के हालत की छवि और सुन्दर सन्देश .... शुभ कामनाएं 

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