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चक्रव्यूह (कहानी)

आज भी तापमान ४.५ डिग्री सेंटीग्रेड है पर काम पर तो जाना ही है. डर किस बात का है, खुला आसमान अपना ही तो है , आंधी -बारिश  , धूप-छांव, घना कोहरा हो या ओस टपकाता आसमान, काम तो करना ही है, यह कोई नई बात थोड़े ही है.छोटू के लिये लाना है स्वेटर, उसकी माँ के लिए गर्म शाल, छुटकी के लिए टोपी , खुद अपने लिए कम्बल और अम्मा के लिए दवाईया, अम्मा बेचारी रात भर खाँसती रहती है. घर की छत भी टपक  रही है, उसकी भी मुरम्मत करवानी है. पूरी बरसात टपकती रहती है और सर्दियों में बर्फीली हवाएँ कंपकपाती रहती हैं. अभी तो सर्दी शुरू ही हुयी है, और बढ़ेगी अभी. छुटकी को तो पढ़ा नहीं पाऊँगा मगर छोटू को भेजूँगा स्कूल, बस थोड़े रुपये इकट्ठे करने होंगे. आज ही ठेकेदार ने बुलाया है, ऊपर वाले की मेहरबानी से बहुत दिनों बाद काम हाथ आया है. ठेकेदार कह रहा था बड़े लोगो को नगर निगम ने नोटिस भेजा है कि इन लोगों ने अवैध तरीके से सरकारी ज़मीन पर जो निर्माण  किया है, उसे तोडना होगा. रात दिन लग कर हः काम पूरा करना है.  सीमेंट, ईट, पत्थर व् कंक्रीट से जूझना है, लगता है मेरे  भी सब काम पूरे हो जायेंगे. हफ्ते दस दिन का काम है, तो मेरे भी काफी पैसे बन जायेंगे.- एक दिन की मजदूरों के के ८० रुपये,
.
जब सारी दुनिया रात भर पेट भोजन कर रजाइयो में घुसी सुख -चैन की नींद ले रही थी तब वो रात भर ४.५ डिग्री   सेंटीग्रेड में  पत्थर, कंक्रीटों और ईटो को काटता और तोड़ता रहा और सुबह थकान, भूख और नींद से पस्त उसके हाथो में जब ८० रुपये थमाए गए  तो उसे अम्मा की दवाई, छुटकी की टोपी , छोटू का स्वेटर, टूटी छत की मुरम्मत के सपने चूर चूर होते दिखे. उसने खुद को इतना असहाय और कमजोर पाया कि उसे अपना वजूद, अपनी मेहनत सभी व्यर्थ नज़र आने लगे. अम्मा से दवाई लाने का वादा किया था, बच्चो को क्या कहूँगा ? छुटकी तो चुप रहेगी क्योंकि वह अपनी माँ की तरह समझदार है. पर छोटू तो स्वेटर न मिलने पर जार जार रोयेगा. आज तो घर चावल भी ले कर जाना है , सुबह ही पत्नी कह रही थी कि घर में राशन भी खत्म ही है. उसकी आँखों के आगे अँधेरा सा छाने लगा, उसके अन्दर जैसे कुछ टूट सा गया हो.
.
वो कभी आसमान की और देखता तो कभी हाथ में पकडे उन ८० रुपयों को. और फिर सहसा ही उसके पाँव कलाली की दूकान की तरफ मुड पड़े. जहाँ उसको मिलेगी उसके हर दुःख की दवा. वहां बैठ कर वो सूखी मछली के साथ पिएगा देसी ठर्रा और वादा करेगा अपने आप से कि कल फिर काम पर जाना है, पैसे जमा करने है और घर वालों की हरेक इच्छा पूरी करनी है. खैर, अभी तो हफ्ते दो हफ्ते का काम बाकी है कुछ न कुछ तो कर ही लेगा वो.

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Comment by Ajay Kumar Dubey on May 12, 2012 at 1:09pm

यथार्थ. एक मजदूर की मनोदशा को चित्रित कराती हुयी , सुन्दर कहानी.

बधाई.

Comment by Er. Ambarish Srivastava on April 24, 2012 at 5:11pm

आपका स्वागत है !

Comment by MAHIMA SHREE on April 24, 2012 at 4:32pm

आदरणीय अम्बरीश सर ,
नमस्कार .
आपने समय निकाल कर कहानी पढ़ी , आभारी हूँ , उत्साहवर्धन के लिए
आपका हृदय  से धन्यवाद

Comment by Er. Ambarish Srivastava on April 24, 2012 at 2:28pm

महिमा जी ! यथार्थ पर आधारित कहानी लिखने का बहुत अच्छा प्रयास किया है आपने !  बधाई स्वीकारें |

Comment by MAHIMA SHREE on April 20, 2012 at 10:26am
आदरणीय शुभ्रांशु जी , नमस्कार
स्वागत है आपका , आपने समय दिया , सराहा, आपका धन्यवाद ,आभारी हूँ
Comment by Shubhranshu Pandey on April 20, 2012 at 10:05am

कहानी... अपना घर बनाने के लिये दूसरों का घर तोडने के भाव से प्रारंभ होती हुई कुछ ना कर पाने की छटपटाहट पर समाप्त होती है...अच्छी कहानी है....

Comment by MAHIMA SHREE on April 19, 2012 at 10:39am
परम आदरणीय प्रदीप सर ,
सादर प्रणाम .
आपका आशीर्वाद हमेशा अपेक्षित है ..
सही पहचाना आपने " कविता जैसी कहानी " :)
सर आपके पीछे -२ हूँ :) आपकी कहानी बहुत अच्छी लगी /
आपको हार्दिक धन्यवाद, स्नेह बनाये रखे
Comment by MAHIMA SHREE on April 19, 2012 at 10:33am
आदरणीया सीमा जी ,
नमस्कार , आभारी हूँ , आपने पढ़ा , विस्तृत विश्लेषण किया ,और उत्साहवर्धन भी ,
आपके बहुमूल्य विचारो के लिए ह्रदय से धन्यवाद .
आपकी कहानी अवश्य पढूंगी , सीमा जी 45 नहीं 4.5 degree C है/
Comment by MAHIMA SHREE on April 19, 2012 at 10:27am
राकेश जी नमस्कार ,
सही कहा आपने उनका "जीता है फिर भी मरा हुआ सा है "
आपका बहुत -२ धन्यवाद , आभारी हूँ
Comment by MAHIMA SHREE on April 19, 2012 at 10:24am

आदरणीय सौरभ सर ,
सादर नमस्कार ,
आपकी बात से सहमत हूँ कम शब्दों में भी अपनी बात रखी जा सकती है , आपकी बात समझ में आ गयी , भविष्य में ध्यान रखूंगी /
थोडा सा भावुक हो गयी इस लिए प्रतिक्रिया तीखी हो गयी है मुझे भी एहसास हुआ .
आपका ह्रदय से आभार

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