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हाँ मेरे पास कोई सहारा नहीं,

मगर मैं बेबस बेचारा नहीं;

*

सोचता हूँ कुछ मैं भी कहूँ अब
मगर ज़ुबान को ये गवारा नहीं;

*

वो जिसे हम अपना समझते रहे,
आज जाना के वो हमारा नहीं;

*

थोड़ी सी ज़मीन मुट्ठी भर आसमान,
आज करने को मेरे ये भी गुज़ारा नहीं;

*

ज़िंदगी यूँ तो अमावस सी है मेरी,
पर फ़लक में कोई भी सितारा नहीं;

*

हाँ भटकता हूँ मैं दरबदर माना यूँ ही

पर मैं सड़कों का कोई आवारा नहीं;

*

जाते-जाते लगा कोई बुलाता है 'वाहिद',
फिर के देखा तो किसी ने पुकारा नहीं;


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Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 15, 2012 at 9:58am

सराहना के लिए हार्दिक आभारी हूँ त्रिपाठी जी| सादर,

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 15, 2012 at 9:58am

स्नेही चातक जी,

प्रोत्साहन के लिए लिए आभारी हूँ| हालाँकि ग़ज़ल में शिल्प के स्तर पर कुछ कमियां रह गयी हैं फिर आपने इसे सराहा इसके लिए धन्यवाद|

Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 15, 2012 at 8:02am
वाहिद जी गजल की हर पंक्ति में दम है।
पर इस पंक्ति ने मुग्ध कर दिया साहब
'जाते जाते लगा कोई बुलाता है वाहिद।
फिर के देखा तो किसी ने पुकारा नहीं॥'
सच कहूं तो इस गजल के लिए बस एक ही शब्द है केवल-
गजब!!गजब!!!गजब!!!!गजब
Comment by Chaatak on March 14, 2012 at 10:48pm

स्नेही वाहिद जी, सादर अभिवादन, हर शेर पर दिल से बस एक ही आवाज़ उठी- बहुत खूब! बहुत खूब!

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 14, 2012 at 4:50pm

आदरणीय अभिनव जी,

आप जैसे गुणीजनों से प्रशंसा मिलती है तो और भी अच्छा करने की प्रेरणा मिलती है| हार्दिक आभार आपका,

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 14, 2012 at 4:49pm

सराहना के लिए बहुत शुक्रिया राकेश भाई.. :-)

Comment by Abhinav Arun on March 14, 2012 at 2:53pm

जाते-जाते लगा कोई बुलाता है 'वाहिद',
फिर के देखा तो किसी ने पुकारा नहीं

क्या बात है वाहिद जी बहुत नाज़ुक सी बात किस नाज़ुकी से कही आपने वाह वाह !!

Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 14, 2012 at 2:34pm

हाँ मेरे पास कोई सहारा नहीं,

मगर मैं बेबस बेचारा नहीं;

सोचता हूँ कुछ मैं भी कहूँ अब
मगर ज़ुबान को ये गवारा नहीं;

bahut sundar panktiyaan ban padi hain, Wahid bhai, bahut bahut badhai.


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