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मांग मत अधिकार अपना, ये अनैतिक कर्म है,
ठेस लगती है, हुकूमत का बहुत दिल नर्म है.
 
हक हमारा कुछ नहीं, पुरखे हमारे लापता,
हर तरक्की के लिए, बस 'द्रष्टि उनकी' मर्म है.
 
सैर को आये कभी जब, मान उपवन गाँव को,
खेत सूखे देख कर, गर्दन झुकी है, शर्म है.
 
कह दिया गर, 'भूख से हम मर रहे है ऐ खुदा!'
ज्ञान मिलता, सब्र और विश्वास रखना धर्म है.
 
कट गए सद्दाम या लादेन, गद्दाफी यहाँ,
तब समझ में आ गया खूं कौम का भी गर्म है!

लूट, हिंसा और लिप्सा से निकलिए शेख जी,

भोर होने आ चली, काली निशा का चर्म है.

 

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Comment by वीनस केसरी on March 10, 2012 at 11:15pm

वाह वाह वाह राकेश जी

मतले में ऐसी कठिन काफिया बंदी से सबसे बड़ा खतरा यही होता है कि आगे चल कर भर्ती के काफिये लेने पड़ते हैं मगर आपने जिस खूबसूरती और सहजता से हर्फे काफिये को हर शेर में निभाया है मन झूम झूम गया

कुछ एक शेर में लय भंग हो रही है उचित सुधार से ग़ज़ल और निखर जायेगी
उचित समझें तो दुरुस्त करें ...

Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 10, 2012 at 8:53pm
श्रीमान प्रदीप सर, हौसला बढ़ने के लिए धन्यवाद.
Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 10, 2012 at 6:47pm

मांग मत अधिकार अपना, ये अनैतिक कर्म है,

ठेस लगती है, हुकूमत का बहुत दिल नर्म है.
करारा व्यंग, यथार्थ चित्रण , बधाई. 
Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 10, 2012 at 11:52am
माननीया मीनू जी, धन्यवाद. अब देखिए ना कौन सा दल बुरा है, कौन सा अच्छा, हमे कुछ समझता ही नही, तभी तो 'गोंडवी' साहब ने कहा था "काजू भूनी पलेट मे". बिल्कुल भी जै हिंद बोलने का मान नही कर रहा है :(
Comment by minu jha on March 10, 2012 at 11:28am

राकेश जी

सदा की तरह एक अच्छी रचना,कुछ कटू सत्यों को उजागर करती और

खुद से ही सवाल करने को मजबूर करती रचना,बधाई

कृपया ध्यान दे...

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