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ग़ज़ल - 8 (योगराज प्रभाकर)

रेशम के शहर आ बसा हूँ इस यकीन से
कोई तो मिले इश्क जिसे पापलीन से !

मैं चाँद सितारों के ज़िक्र में हूँ अनाड़ी,
इन्सान हूँ जुड़ा हुआ अपनी ज़मीन से !.

सच्चाई की तासीर तो कड़वी ही रहेगी,
आएगी न मिठास कभी भी कुनीन से !

मजबूरी-ए-हालात है कुछ और नहीं है,
जो मस्त लगा नाग सपेरे की बीन से !

बंगले मकान तो यहाँ लाखो ही मिलेंगे
घर ढूँढना पड़ेगा मगर दूरबीन से !

सर को उठाऊँ ग़र तो चूल्हा रहे ठंडा,
सर को झुकाऊँ गर तो गिरता हूँ दीन से

ससुराल में बिटिया के हालात जो सुने,
कांटे जिगर में चुभ गए लाखों महीन से !.

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Comment by kanta roy on June 26, 2015 at 8:57am
सात शेर ने मिलकर जिंदगी के कितने बारीक पहलुओं को उभारा है । रिशम के शहर में .... का क्या कहना लाजवाब हो गये पढकर ....एक शायर चाँद तारों की बात भी कितने अनाड़ीपन में कह जाते है इसकी बानगी तो देखते ही बनती है । समाजिक विसंगतियों से आपका प्रभाविक होना आपकी शेर में सारे मर्म उभर कर आते है । आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी का हर शेर को पैनी नजर से देखने का अंदाज़ ... वाह !!!! ..... अच्छा लगता है आपको पढना । नमन श्री
Comment by Mukesh Verma "Chiragh" on March 31, 2014 at 8:11am

आदरणीय योगराज जी
दिल कर रहा था की आपको पढ़ूँ. आख़िरकार खोज निकाली आपकी ये पुरानी ग़ज़ल. पढ़कर अच्छा लगा.
बहुत बहुत मुबारकबाद
इन दो अश्'आरो पर खुसुसी दाद हाजिर है.

मैं चाँद सितारों के ज़िक्र में हूँ अनाड़ी,
इन्सान हूँ जुड़ा हुआ अपनी ज़मीन से !.

सच्चाई की तासीर तो कड़वी ही रहेगी,
आएगी न मिठास कभी भी कुनीन से !

Comment by DEEP ZIRVI on October 7, 2010 at 10:09pm
कोई तो मिले इश्क जिसे पापलीन से !.....waah

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on September 20, 2010 at 10:35am
अपर्णा जी,
शेअर पसंद करने के लिए दिल से सादर धन्यवाद देता हूँ आपको !

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on September 20, 2010 at 10:34am
सौरभ भाई जी,
आपकी समीक्षा का Hangover ज़ेहन पर तारी रहा जिसकी वजह से प्रतिक्रिया देने में विलम्ब हुआ, क्षमाप्रार्थी हूँ ! आपकी टिप्पणी पढ़कर मुझे उर विशवास हो गया कि मेरा श्रम असफल नहीं गया ! दिल की गहराईयों से आपको सादर धन्यवाद देता हूँ जो आपने मेरे टूटे फूटे शेअरों को भी इतना मान बख्शा !
Comment by Aparna Bhatnagar on September 18, 2010 at 11:47pm
सर को उठाऊँ ग़र तो चूल्हा रहे ठंडा,
सर को झुकाऊँ गर तो गिरता हूँ दीन से

ससुराल में बिटिया के हालात जो सुने,
कांटे जिगर में चुभ गए लाखों महीन से !.
अंतिम शेर महीन काँटों -सा चुभ गया .... इस टीस को बिटिया और उसके माँ-बाबा ही महसूस कर सकते हैं या फिर एक कवि....

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 16, 2010 at 2:33pm
भाई योगराजजी, आपका लिखा मुझे पूरी तरह से अपनी रौ में बहा ले गया है. इधर दो-तीन दिनों से आपके एक-एक शेर को न सिर्फ़ गुन रहा हूँ बल्कि सही कहिए जी रहा हूँ. किस-किस का बयाँ करूँ -- बिटियावाला? घरवाला? मजबूरियोंवाला? किस हालात पर कहूँ?? पूरे वज़न और वज़ूद के साथ हरेक मुसल्लम है. ..मुसलसल रवानी के साथ.. चीखती हुई सचाई के साथ.

चकाचौंधभरे माहौल में अपनी ज़मीन भूल जाने वालों की कमी नहीं. इन माहौल में अपनी गठरियों को सहेज कर रखने वाले अक्सर नहीं हुआ करते. पर, उन गठरियों में पड़ी यादों और अपने माज़ी के टोकन की परस्तिश कोई विरला .. नहीं-नहीं.. कोई पगला-मनमौजी ही किया करता है. और उस विरले को एक अपने जैसा अदद ढ़ूँढते देखना सचमुच में नायाब लगा. .. कोई तो हो यहाँ जिसे याद है अभी भी अपनी पापलीनवाली ज़िन्दग़ी..!.

>>>> सर को उठाऊँ ग़र तो चूल्हा रहे ठंडा,
सर को झुकाऊँ गर तो गिरता हूँ दीन से..
कहते ऐसे ही जीते हैं जो जीने वाले हैं.
आपने वो कुछ कहा है .. ईमान भरी ज़िन्दग़ी या, ज़िन्दग़ी और फिर ईमान?.. इस सवाल को लेकर मन में मची हाय-तौबह हर-एक के लिए अहम है.. उसके अपने मायने है. और जो इसे जान गया वो कह ही उठेगा न.. " ..आएगी न मिठास कभी भी कुनीन से !.."

>>>>मजबूरी-ए-हालात है कुछ और नहीं है,
जो मस्त लगा नाग सपेरे की बीन से !
शेर है या सच की फोटोग्राफी? एक बबरशेर तबतक पालतू नहीं हुआ करता जबतक उसके हालात के चलते लाले न पड़ें. .. कंधों पर की जिम्मेदारियाँ बहुत कुछ बर्दाश्त करने को झुका डालती हैं.
घरकी चाहरदीवारियाँ संस्कार देती थीं. समाज की दशा अगर आज बिगड़ी दीखे है.. तो घरों का लगातार बंगला होते जाना भी है. -
>>>>बंगले मकान तो यहाँ लाखो ही मिलेंगे
घर ढूँढना पड़ेगा मगर दूरबीन से !

आभार, योगराजभाई.. बहुत दिल से कहा है आपने सारा कुछ. सोचता रहा था मैं .. और आज हमने अपनी कह डाली.. .

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on September 16, 2010 at 12:17pm
विवेक भाई, आपको ग़ज़ल पसंद आई ये जान कर बहुत अच्छा लगा !
Comment by विवेक मिश्र on September 9, 2010 at 4:58pm
/रेशम के शहर आ बसा हूँ इस यकीन से
कोई तो मिले इश्क जिसे पापलीन से !/
- एक ताज़ा ख़याल के साथ बेहद उम्दा मतला. जितनी बार पढ़ा, उतनी बार नया ही लगा.

/मैं चाँद सितारों के ज़िक्र में हूँ अनाड़ी,
इन्सान हूँ जुड़ा हुआ अपनी ज़मीन से !./
- ज़मीन से जुड़े रहकर भी, ज़मीन से 2 फुट ऊपर का शे'अर कह डाला. वाह..

/सच्चाई की तासीर तो कड़वी ही रहेगी,
आएगी न मिठास कभी भी कुनीन से !/
- एकदम सच्ची बात है..

/मजबूरी-ए-हालात है कुछ और नहीं है,
जो मस्त लगा नाग सपेरे की बीन से !/
- काश इतने तीखे ख़याल मुझे भी आ पाते.

/बंगले मकान तो यहाँ लाखो ही मिलेंगे
घर ढूँढना पड़ेगा मगर दूरबीन से !/
- ये शे'अर सबसे ज्यादा पसंद आया. बशर-ए-मौजूदा के पास सब कुछ है, पर अपने घर से आजकल सभी दूर ही हैं.

/सर को उठाऊँ ग़र तो चूल्हा रहे ठंडा,
सर को झुकाऊँ गर तो गिरता हूँ दीन से/
- क्या बात है..! आप तो छा गए गुरुदेव..

/ससुराल में बिटिया के हालात जो सुने,
कांटे जिगर में चुभ गए लाखों महीन से !./
- कडवी सच्चाई को इतने प्रभावशाली ढंग से कहना सभी को नहीं आता. ये काम तो वही कर सकता है, जिसने तजुर्बे की भट्टी में अपनी कलम पकाई हो..

कम लफ़्ज़ों में कहें तो कुछ यूँ बन पड़ेगा- "वाह उस्ताद वाह...!"

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on September 8, 2010 at 6:54pm
आपकी इस फराखदिली का दिल से मशकूर हूँ आजर साहिब !

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