खुला मौसम गगन नीला
धरा का तन गीला - गीला l
पतंगों की उन्मुक्त उड़ान
तरु-पल्लव में है मुस्कान l
मकर-संक्रांति को भारत के हर प्रांत में अलग-अलग नामों से जाना जाता है. और वहाँ के वासी अलग-अलग तरीके से इस त्योहार को मनाते हैं. पंजाब में इसे लोहड़ी बोलते हैं जो मकर-संक्राति के एक दिन पहले की शाम को मनायी जाती है. और उत्तरप्रदेश में, जहां से मैं आती हूँ, इसे मकर-संक्रांति ही बोलते हैं. लोग सुबह तड़के स्नान करते हैं ठंडे पानी में. और इस दिन को खिचड़ी दिवस के रूप में मनाते हैं. यानि घर की औरतें एक थाली में उड़द की काली दाल, नये चावल, नमक, मिर्च, गुड़, घी व कुछ रूपया-पैसा रखती हैं और घर के आदमी लोग पुन्य प्राप्त करने हेतु उसे हाथ से छूते हैं, फिर उसे ब्राह्मणों को देते हैं.
इस दिन केवल काले उड़द की दाल की खिचड़ी ही खाने में बनती है. आज फिर जैसे बचपन की यादों के टुकड़े बिखर कर पतंग की तरह उड़ने लगे हैं. कल्पना में अपने को मायके के बड़े से आँगन में देख रही हूँ. और वहाँ बिछी हुई गुनगुनी धूप में चारपाई पर थाली रखकर वो गरमागरम खिचड़ी (जिसमें अम्मा अपने प्यार के साथ-साथ ढेर सा देशी घी उंडेल देती थीं) धनिये की चटनी, अचार, मूली, दही और आलू के भर्ता के संग खाते हुये देख रही हूँ.
और यही मौसम रेवड़ी, गजक का भी होता है जिनका आनंद भरपूर लिया जाता है. गन्ने के रस की बहार का क्या कहना. ताज़ा रस आता था कोल्हू से निकल कर और उसे ठंडा-ठंडा पीते थे व माँ उसमें चावल डाल कर मीठी खीर बनाती थीं जिसे हम रसाउर बोलते थे. उसे वैसे ही खाया जाता है. लेकिन चाहो तो उसमे दूध अलग से अपनी श्रद्धानुसार डाला जा सकता है.
और फिर बारी आती थी पतंगों की. इस दिन पतंग बेचने वालों के यहाँ भीड़ लगी रहती थी...तरह-तरह के रंग और आकार की पतंगें, चरखी और मंझा...खूब बिक्री करते थे बेचने वाले. छोटे बच्चे छोटी व बड़े बच्चे बड़ी पतंगें पहले से ही इस दिन के लिये खरीद कर रखते थे और फट जाने पर जल्दी से और खरीद कर ले आते थे. बड़े जोर-शोर से कुछ दिन पहले से ही पतंगें उड़ाने की तैयारी होती थी. और छत पर जाकर खुले-खुले नीले आसमान के नीचे कुछ सिहरन देती हवा में पतंगें उड़ाते थे. चारों तरफ पतंगें ही पतंगें..जैसे रंग-बिरंगे रूमाल उड़ रहे हों. फिर कभी आपस में लड़ना, नाराजी में दूसरे की पतंग फाड़कर कलेजे को ठंड पहुँचाना, आँसू बहाना, मचल जाना इत्यादि तमाम कुछ होता था.
बड़े भाइयों के आदेश पर मंझा और चरखी पकड़ कर उनके पीछे-पीछे चलना, पतंग को पकड़ कर दूर किनारे पर जाकर उसे ऊपर हवा में छोड़ना, कोई गलती हो जाने पर उनकी डांट खाना और वहाँ से भगा दिये जाना. लेकिन फिर कुछ देर के बाद चैन ना पड़ने पर बेशरम की तरह फिर जाकर जिद करना कि हमें भी पतंग उड़ाने दो. लेकिन लड़की होने के कारण और उन भाइयों से छोटे होने के कारण हमारी दाल नहीं गलती थी. यानि हमको बड़ी क्रूरता से फटकार दिया जाता था ‘चल हट...तुझे पतंग उड़ाना आता भी है’ तो हमारी उमंगों पर पानी फिर जाता था और हम मुँह लटकाकर अपनी हसरत मन में दबाकर उन सबको पतंग उड़ाते हुये देखते रहते थे. लेकिन भाग-दौड़ के कामों में हमारा फुल उपयोग होता था. जैसे किसी और की पतंग काटने को उन्हें उत्साहित करना और कभी कोई पतंग पड़ोस की छत पर गिरी तो ‘जा पड़ोसी के छत पर पड़ी पतंग जल्दी से उठा ला’ या 'उस पपीते व अमरुद के पेड़ में फँसी हुई वो पतंग मुंडेर पर चढ़कर निकाल कर ले आ’ या ‘दूर वाले की पतंग उलझ गयी है और अपनी छत पर नीचे झुक रही है...तोड़ इसे..काट इसे’ आदि के शोर में शामिल होना. और उससे पहले ही यदि किसी और ने वहाँ पहुँचकर वो पतंग लपक कर उठा ली तो अपना सा मुँह लेकर हम वापस आ जाते थे. दिन डूबने तक आसमान को छूती हुई लहराती पतंगों में होड़ सी रहती थी कि किसकी पतंग खूब ऊँची और देर तक उड़ती है.
शाम तक पतंगों की रौनक रहती थी फिर सब लोग अपनी चरखी-मंझा समेटकर छत से नीचे आ जाते थे. और हम रात में सोने पर सपनों में चैन से उन पतंगों को उड़ाने की हसरत पूरी करते थे.
-शन्नो अग्रवाल
Comment
गणेश, इतने उत्साहबर्धक कमेन्ट के लिये आपका बहुत धन्यबाद. मकर-संक्रांति पर सपरिवार आपको व सभी ओबीओ मित्रों को हार्दिक शुभकामनायें.
शन्नो दी , मकर संक्रांति के पर्व पर आपका यह लेख बहुत ही सुन्दर लगा, इसी बहाने बचपन के कई कई दृश्य आखों के सामने है, बधाई आपको |
अरुण जी,
आपकी इस उत्साहित करने वाली टिप्पणी के लिये हार्दिक धन्यबाद. जब बचपन की यादें मंथन करती हैं तो लेखनी पता नहीं क्या-क्या उगल देती है बिना सोचे-समझे :) और आप बनारस से हैं ना ? बनारस की बहुत तारीफ सुनी है और देखने का बड़ा मन करता है. अपने भारत में बहुत सुंदर जगहें हैं पर हर जगह जाना नहीं हो पाता. बस ''मन चंगा तो कठौती में गंगा'' वाली बात सोचकर संतोष कर लेती हूँ. यही जीवन है.
पतंगें तो हर जगह अब भी उड़ती होंगी...शायद डिजाइन बदल गई होंगी. और बनारस का क्या कहना ! भारत में आजकल तो बच्चे नेट पर भी पतंगें उड़ाते होंगे शायद :)))) अपना सीधा-सादा सा बचपन तो बहुत पीछे चला गया है. आपको मकर-संक्रांति की बहुत शुभकामनायें.
बाइ द वे, हम आज भी जोर से ही बोलते हैं... !! . . हा हा हा हा... .
आदरणीया शन्नो जी मकर संक्रांति का परिवेश बना दिया आपके इस संस्मरणात्मक लेख ने | बहुत सुन्दर ! और हाँ त्योहारों की इस अप्रतिम श्रृंखला पर हार्दिक बधाई !! बनारस भी पतंगों से पट जाता है संक्रांति पर .. और बांधों के युग में धीमी धीमी बहती गंगा में नहाने वालो से भी :-))
सौरभ जी,
आज सुबह आपके लेख को पढ़ने के उपरान्त मकर-संक्रांति से जुड़ीं यादें ताज़ा हो आयीं तो अपने को रोक नहीं सकी. और अपनी उन कुछ यादों को लिख दिया. लिखने को तो न जाने और भी बहुत कुछ अटरम-सटरम था, किन्तु उस दिन की स्मृतियाँ काफी तरो-ताज़ा हो आईं. आपके कमेन्ट को पढ़कर तो बचपन और भी हुम्कारें भरने लगा है. कितनी सादगी थी हमारे बचपन में..कई बार तो मूंगफली, लईया और चने झोली में रखकर खेलते हुये खाया करते थे. किसे परवाह थी स्टाइल और दिखावे की. मन भर कर कूदे-फांदे ...कोई नाराज हुआ तो हो ले...कोई कान खींचे तो खींचने दो, कोई झुंझलाये तो झुंझलाने दो...थोड़ी देर बाद रो-मचल कर अपुन नार्मल हो जाते थे...हा हा हा...
आजकल तो हम लोग बच्चों को ना ही डांट सकते हैं और ना ही उनके सामने ऊँची आवाज में बोल सकते हैं...अपने मैनर्स देखने पड़ते हैं. और एक हम थे जिसपर माँ चिल्लाती रहती थी और हम कभी अधिक नोटिस नहीं करते थे कि उन्हें वैसा करने से रोकते. घर में ऊँची आवाज में बोलना...सारा दिन किसी न किसी बात पर चीख-पुकार सब नार्मल बातें थीं...अर्रर्रर्र कहाँ से कहाँ पहुँच गयी मैं. आपका आत्मीयता भरे कमेन्ट का ही ये जादू है कि मैं भावों में इतना बह गयी :)))))) बहुत अच्छा लगता है आपका लिख हुआ पढ़ना. आपकी इतनी भाव विभोर कर देने वाली इस टिप्पणी के लिये बहुत-बहुत धन्यबाद.
आदर सहित....
किस दुनिया को समेट लायी हैं शन्नोजी ! आऽऽऽह !! आपके साथ स्मृतियों के झरोखे से हमने भी विजन में खुली आँखों ही बहुत कुछ देखा, बहुत कुछ जीया. सामने यहाँ आज भले कुछ न हो, परन्तु, हम बहुत कुछ देख लिया करते हैं, न?!
वो भी क्या ज़माना था जब उल्लास अपने होने के अर्थ नहीं पूछा करता था. हमें उत्साह और खिलखिलाहटों के कारण नहीं बताने होते थे. मीठा खाने के पहले संयत नहीं होना पड़ता था. झटक कर चलने और दौड़ने के पहले आस-पास के विस्तार को तौलना नहीं होता था. भूख लगने के मायने नहीं हुआ करते थे. और.. और, बिना तश्तरी, दोनों हाथों में लिये लाई, तिलवा या ग़ज़क को टहल-टहल कर जहाँ-तहाँ गिराते हुए खाते जाना और बड़ों से झिड़कियाँ सुनने के बावज़ूद फिर रम जाना अपना व्यवहार .. नहीं, जन्मसिद्ध अधिकार हुआ करता था !
पतंग उड़ाने की घटना का आपने बढ़िया वर्णन किया है.
स्मृतियों के पन्नों को साझा करने के लिये सादर धन्यवाद.
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