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सूरज भी कतराने लगा

बेवफा होना तेरा क्या क्या सितम ढाने लगा
अब तो मैं मंदिर में भी जाने से घबराने लगा

हो अलग तुमने जला डाली थी मेरी याद तक
मैं तेरी तस्वीर से दिल अपना बहलाने लगा

भोर की पहली किरण मैंने चुराकर दी जिसे
दूसरे के घर को अब वो फूल महकाने लगा

सर्द रातों में लिपट जाता था कोहरे की तरह
मैं बना सूरज तो दुःख का चाँद शरमाने लगा

घर के आगे जब से इक ऊँची ईमारत बन गई
मेरे घर आने से अब सूरज भी कतराने लगा

 

 

 

………………………………….. अरुन श्री !

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 13, 2012 at 1:47pm

ग़ज़ल के लिये बधाई स्वीकारें. 

घर के आगे जब से इक ऊँची ईमारत बन गई
मेरे घर आने से अब सूरज भी कतराने लगा

बहुत खूब !!


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on January 13, 2012 at 11:42am

//घर के आगे जब से इक ऊँची ईमारत बन गई
मेरे घर आने से अब सूरज भी कतराने लगा//

वह वाह - बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल कही है अरुण जी, बधाई स्वीकार करें.

Comment by Arun Sri on January 11, 2012 at 10:22am

एक मिसरे में थोडा परिवर्तन किया है -

भोर की पहली किरण मैंने चुराकर दी जिसे
दूसरे के घर को अब वो फूल महकाने लगा

Comment by mohinichordia on January 10, 2012 at 11:25am
nice

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