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मुक्तिका: समझ सका नहीं संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

समझ सका नहीं

संजीव 'सलिल'
*
*
समझ सका नहीं गहराई वो किनारों से.
न जिसने रिश्ता रखा है नदी की धारों से..

चले गए हैं जो वापिस कभी न आने को.
चलो पैगाम उन्हें भेजें आज तारों से..

वो नासमझ है, उसे नाउम्मीदी मिलनी है.
लगा रहा है जो उम्मीद दोस्त-यारों से..

जो शूल चुभता रहा पाँव में तमाम उमर.
उसे पता ही नहीं, क्या मिला बहारों से..

वो मंदिरों में हुई प्रार्थना नहीं सुनता.
नहीं फुरसत है उसे कुटियों की गुहारों से..

'सलिल' न कुछ कहो ये आजकल के नेता हैं.
है इनका नाता महज तोड़-फोड़ नारों से..
*********************
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम

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Comment by Sanjay Kumar Singh on August 23, 2010 at 3:47pm
Achhi rachna, baar baar padhney ko dil chaheyey,
Comment by Harsh Vardhan Harsh on August 23, 2010 at 9:10am
जो शूल चुभता रहा पाँव में तमाम उमर.
उसे पता ही नहीं, क्या मिला बहारों से..
वाह! बेहतरीन रचना, हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
Comment by guddo dadi on August 22, 2010 at 11:29pm
नन्हे बिटवा भाई
चिरंजीव भवः
सलिल कुछ ना कहो ये आज कल के नेता हैं
है इनका नाता महज तोड़-फोड नारों से
कितना सच लिखा आपने
आज के नेता भारत रत्न पाने को रोता
क्यों करे चिंता निर्धन की आँखें मूँद कर सोता

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 22, 2010 at 7:53pm
वो मंदिरों में हुई प्रार्थना नहीं सुनता.
नहीं फुरसत है उसे कुटियों की गुहारों से..

बहुत ही यथार्थ रचना, बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति, आभार आचार्य जी ,

कृपया ध्यान दे...

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