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अफ़सोस

किनारों पे चलाना मुमकिन नहीं था
डूब जाएंगे हम यह डर था हमें
खुद हमनें किनारों पे मारी थी ठोकर
आज तलक रास्ता मिला ना हमें
हम अपनीं तवाही के कसूरबार खुद हैं
संभल ही सके ना यह ग़म है हमें
यादों के नश्तर तीखे बहुत हें
यह अपनें ही ग़म हैं मंज़ूर है हमें
देखते हैं आइना जब फुर्सत में हम
सोचते हैं अक्सर हुआ क्या हमें
जलाते रहो यूँ भी 'दीपक' हैं हम
और आपकी फ़ितरत का ईल्म है हमें

दीपक शर्मा कुल्लुवी

09136211486

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on August 19, 2010 at 8:53pm
सुन्दर रचना...जीवन में कभी कभी आत्मचिंतन बहुत आवश्यक हो जाता है...गहन मंथन के बाद ही हम अपने अंतर को जान पाते हैं ...

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 18, 2010 at 9:50pm
हम अपनीं तवाही के कसूरबार खुद हैं
संभल ही सके ना यह ग़म है हमें,

एक बार फिर अच्छा प्रयास , साधुवाद,

कृपया ध्यान दे...

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