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काव्य सलिला: अनेकता हो एकता में -- संजीव 'सलिल'


*

विविधता ही सृष्टि के, निर्माण का आधार है.
'एक हों सब' धारणा यह, क्यों हमें स्वीकार है?

तुम रहो तुम, मैं रहूँ मैं, और हम सब साथ हों.
क्यों जरूरी हो कि गुड़-गोबर हमेशा साथ हों?

द्वैत रच अद्वैत से, उस ईश्वर ने यह कहा.
दूर माया से सकारण, सदा मायापति रहा..

मिले मोदक अलग ही, दो सिवइयां मुझको अलग.
अर्थ इसका यह नहीं कि, मन हमारे हों विलग..

अनेकता हो एकता, में- यही स्वीकार है.
तन नहीं मन का मिलन ही, हमारा त्यौहार है..

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Comment by mohinichordia on September 6, 2011 at 6:21pm

विविधता ही सृष्टि के निर्माण का आधार है ....

द्वेत रच अद्वेत से ... बहुत सही कहा आपने .


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 4, 2011 at 4:52pm

अनेकता में एकता, बहुत ही खुबसूरत काव्य कृत, आभार आदरणीय आचार्य जी |

कृपया ध्यान दे...

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