मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'
*
ये शायरी जबां है किसी बेजुबान की.
ज्यों महकती क्यारी हो किसी बागबान की..
आकाश की औकात क्या जो नाप ले कभी.
पाई खुशी परिंदे ने पहली उड़ान की..
हमको न देखा देखकर तुमने तो क्या हुआ?
दिल ले गया निशानी प्यार के निशान की..
जौहर किया या भेज दी राखी अतीत ने.
हर बार रही बात सिर्फ आन-बान की.
उससे छिपा न कुछ भी रहा कह रहे सभी.
किसने कभी करतूत कहो खुद बयान की..
रहमो-करम का आपके सौ बार शुक्रिया.
पीछे पड़े हैं आप, करूँ फ़िक्र जान की..
हम जानते हैं और कोई कुछ न जानता.
यह बात है केवल 'सलिल' वहमो-गुमान की..
Acharya Sanjiv Salil
Comment
बेजुबान को जुबान दे दी आपकी कलम ने |
आकाश की औकात ..... बहुत सुन्दर अभिव्यक्ती है |
प्रिय मोनिका !
आपको रचना पसंद आई तो मेरा कवि कर्म सार्थक हो गया.
संजीव सलिल जी सबसे पहले तो मेरा प्रणाम स्वीकार करे. मे बहुत छोटी हू आपकी मुक्तिका पर टिप्पणी करने के लिए किंतु इतना ज़रूर कहूँगी की शायरी की जुबा मे बहुत ताक़त हे और आज उस ताकत को महसूस किया आपकी मुक्तिका मे. जितनी तारीफ़ करू कम हे. बहुत ही बढ़िया ख़ासकर
उससे छिपा न कुछ भी रहा कह रहे सभी.
किसने कभी करतूत कहो खुद बयान की..
इन पंक्तियो ने बहुत कम मे बहुत ज़्यादा कहा हे. आपका शुक्रिया
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