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धारावाहिक कहानी : कौन देगा इस रिश्ते को नाम ? अंक १

 

कौन देगा इस रिश्ते को नाम ? (कहानी )

लेखक -- सतीश मापतपुरी

  • अंक -- एक

उफ़ ! बड़ी भयानक रात थी .................. हवा की सांय-सांय भी अन्दर तक हिला कर रख देती . दिन के उजालों में तो किसी तरह वक़्त सरक जाते.............. किन्तु, रात के अंधेरों में जैसे थम कर रह जाते हों. कुछ लोग किसी हादसा को हर साल याद दिला कर कटुता एवं नफ़रत को भड़काने से बाज नहीं आते. दिसंबर का महीना शुरू हो चुका था .......................... 6 दिसंबर की उस पुरानी घटना की चर्चा अचानक समाचार की सुर्ख़ियों में आने लगी थी. हैरत की बात तो ये थी कि दोनों समुदायों की तरफ से जो उत्तर -प्रतिउत्तर दे रहा था, उसे न तो हिन्दू पहचान रहे थे न मुसलमान. ................. यह कहानी आज की है ............. यह कहानी हमारे ज़ज्बात की है ............ यह कहानी हमारे भाईचारे और रिवाज की है .................. मज़हब की आड़ लेकर कुछ लोग हमारी सदियों पुरानी गंगा - जमुनी संस्कृति को तार -तार करने में लगे रहते हैं. इसी कड़ी से जुड़ी एक घटनाक्रम में गिरधरपुर इलाके में दंगा छिड़ गया, हैवानियत की गिरफ़्त में कहीं हिन्दू आ रहे थे तो कहीं मुसलमान. दुनिया बनाने वाले के नाम की दुहाई देकर उसके बन्दे उसके ही मंदिर - मस्जिद को नुकसान पहुंचाने में लग गए थे. इंसान ही इंसान के लिए जानलेवा बन चुका था. पता नहीं, अफवाहें कौन फैला रहा था ......... ? कोसों -कोस की खबरें पलक झपकते घर - घर में कही -सुनी जाने लगाती थी .................... इस मानव -मीडिया के समक्ष टेलीफोन, फैक्स, मोबाईल, इन्टरनेट, रेडिओ, टेलीविजन आदि बौने लगने लगे थे. ................ एक हिन्दू सिपाही ने एक मुसलमान औरत की आबरू ...................... यह खबर जैसे ही फैली - लोग पागल हो उठे. देखते ही देखते कितने घर श्मशान बन गए ........................... दरिंदों ने दूध पीते नौनिहालों को भी नहीं बख्शा.

उफ़ ! बड़ी भयानक रात थी ........................ रात के करीब बारह बज रहे थे ................. अजीबोंगरीब आवाजें निकालती तेज हवाएं बह रहीं थी. लगता, एक हल्की सी आहट पर हलक में साँसें अटक जाएगी. रहीम मियाँ आँगन में सोये हुए थे. उनके परिवार में देखने - सुनने में असमर्थ उनकी अम्मीजान के अतिरिक्त फ़कत उनकी बेटी नाज़िमा थी. वक़्त के हाथों बर्बाद हो चुके रहीम मियाँ शहनाज टेलर नाम से रूपपुर - रुसुलपुर चौराहे पर अपनी दूकान चलाते थे.शहनाज उनकी मरहूमा बेगम का नाम था. शहनाज के अब्बाजान ज़ंगेआजादी के जाबांज सिपाही थे, गाँधीजी के निकट सहयोगी थे. रहीम मियाँ अपने ससुराल में ही आ बसे थे. शहनाज के इंतकाल के बाद रहीम ने अपना सारा प्यार अपनी बेटी पर ही उड़ेल दिया था. नाजिमा पर अपने नाना के गांधीवादी विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा था. रहीम मियाँ स्वभाव से कुछ भीरु अवश्य थे, पर प्रकृति से उदार एवं भावुक थे. नाजिमा का हालचाल पूछकर कुछ ही देर पहले रहीम मियाँ की आँख लगी थी........................ किन्तु, नाजिमा चाहकर भी अभी तक सो नहीं पायी थी ............... प्रतिशोध की भयानक अग्नि में लड़कियों की आबरू से खेलने की खबर से वह विचलित हो उठी थी. सोने की कोशिश करते -करते वह एक बार फिर स्वत: बुदबुदा उठी .................. लानत है मर्दों की इस मर्दानगी पर ............. इससे तो बेहतर है कि बिंदी लगाकर और कंगन पहनकर घर में बैठें, बाहर निकल कर इस बेशर्मी से क्या फ़ायदा ? ............... काश ! कोई ऐसा करिश्मा होता कि इंसान नाम का जीव डायनासोर की तरह इस धरती से हमेशा - हमेशा के लिए ख़तम हो जाता ..................... खूंखार इंसानों के डर से जंगल में छिपे जानवर तो कम से कम निर्भीक होकर घुमते -फिरते ................. इंसानों से तो लाख दर्जे बेहतर हैं ये जानवर, कम से कम मंदिर - मस्जिद का कारोबार तो नहीं करते ? करवट बदल कर नाजिमा ने सर तक कम्बल खींच लिया, तभी उसे लगा कि बाहर के दरवाज़े पर कोई दस्तक दे रहा है .................. एकबारगी उसका पूरा बदन काँप उठा .................... (क्रमश:)

 

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Comment by Rash Bihari Ravi on August 30, 2011 at 2:19pm

vah kya bat hain sir ji kahani bahut sundar ja rha hain

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