हल नहीं होते हैं कुछ मुश्किल सवाल ......
मसअले नाज़ुक हैं , टाले जायेंगे .......
ये शहर पत्थर का और हम काँच के ......
हम कहाँ इस से संभाले जायेंगे .......
भूख भी महंगाई से डरने लगी ,
गिन के अब मुँह में निवाले जायेंगे ........
पीर परबत है , पिघलती ही नहीं ........
हम कहाँ इसको हटा ले जायेंगे .......
मुद्दतों पलते रहे जो साँप , अब ,
आस्तीनों से निकाले जायेंगे ............ रावी
Comment
अर्थपूर्ण रचना के लिए बधाई.
भूख भी महंगाई से डरने लगी ,गिन के अब मुँह में निवाले जायेंगे ........वर्तमान परिप्रेक्ष्य को सटीकता से दर्शाती पंक्तियाँ ....बेहद मर्मस्पर्शी रचना. आभार प्रभा जी
भूख भी महंगाई से डरने लगी ,
गिन के अब मुहं में निवाले जायेंगे ..बहुत ही सुन्दर अशआर लिखे हें आपने प्रभाजी .. दुष्यंत कुमार याद आ गए |
वाह,
खूबसूरत अशार कहे हैं
हार्दिक बधाई कबूल करें
"मसले" को शुद्ध रूप "मस्अले" लिख दें तो शेर बाबह्र हो जाये तथा पढ़ने में और आनंद आए
रावी.. अब आप यही यहाँ .. .
सभी मित्रों का हार्दिक धन्यवाद... जन्माष्टमी की शुभकामनाएँ... @Saurabh ji, my pen name is Raavi... शुक्रिया :))
Bahut Khoob!!!!
ये शहर पत्थर का और हम काँच के ......
हम कहाँ इस से संभाले जायेंगे .......
खुबसूरत ख्याल के लिए साधुवाद प्रभा जी
मुद्दतों पलते रहे जो साँप , अब ,
आस्तीनों से निकाले जायेंग,
बेहद खुबसूरत भाव, पूरी रचना मजबूत ख्यालातों से लबरेज, बगैर मतला के कारण ग़ज़ल कहने में संकोच है, इस अभिव्यक्ति पर बधाई प्रभा जी |
आपकी इस उम्दा अभिव्यक्ति पर मेरा दिली दाद कुबूल फ़रमायें, मोहतरमा प्रभाजी (रावी..?!).
हार्दिक साधुवाद.
//पीर-परबत ... हटा ले जायेंगे//
यह शेर कुछ और मशक्कत चाहता है. ऐसा इसलिये कह रहा हूँ कि तथ्य इशारों में कहे गये हैं वो भी पूर्व-उक्तियों की छाया में कहे गये हैं. परबत हो गयी पीर का पिघलना दुष्यंत कुमार का बहुत ही अहम और मकबूल शे’र है. लाजिमी है, आपके बंद को सुनते ही बरबस उस शे’र का खयाल हो आये. ऐसे में उचित होता ये कि आप अपने बंद को दुष्यंत के बिम्बों की छाया में पूरी तरह बसा देतीं. चूँकि आपके इस बंद की ज़मीन सवालिया है, सो इसकी खूबसूरती बखूबी निखर कर आती.
यह सिर्फ़ मेरा मानना है. चूँकि रचना के सभी बंद मज़बूत खयालों से भरे हैं, अतः ऐसा कह रहा हूँ.
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