बचपन में
एक दिन
एक संटी को
मुँह में दबाकर
मैं गन्ना
समझ बैठी
आज लिखते हुये
फिर भूल से
किसी के पन्ने को
मैं अपना पन्ना
समझ बैठी
न जाने कितनी
होती रहती हैं
मिस्टेक जिंदगी में
कुछ अनजाने में
कुछ नादानी में
फिर आती है
झेंप इतनी
तो उन्हें मैं कैसे,
किस तरह और
किस किससे कहती l
-शन्नो अग्रवाल
Comment
वीरेंद्र एवं सतीश जी, रचना सराहने के लिये आपका हार्दिक धन्यबाद.
आज लिखते हुये
फिर भूल से
किसी के पन्ने को
मैं अपना पन्ना
समझ बैठी
बहुत खूब
bahut hi khubsoorat kavita.... bahut bahut badhai aapko...
आशीष, आपका बहुत धन्यबाद.
jindgi hai, galtiyan hona swabhawik hai aur unki sahaj swikriti bahut badi baat hai.
badhai.
आदरणीय सौरभ जी एवं गणेश जी, मेरी छोटी सी रचना को आप लोगों ने सराहा जिसके लिये आप दोनों का बहुत धन्यबाद.
//
आज लिखते हुये
फिर भूल से
किसी के पन्ने को
मैं अपना पन्ना//
आद. शन्नोजी, बहुत बधाई हो इस रचना के लिये. आपकी स्वीकारोक्ति कितनी सहज है..!! इस सहजता को रचनाओं की अंतर्धारा बनायी जाये तो इनली संप्रेषणीयता कितनी बढ़ जायेगी.. !!
आपसे और-और की उम्मीद बनी रहेगी. ..
धन्यवाद
होती रहती हैं
मिस्टेक जिंदगी में
कुछ अनजाने में
कुछ नादानी में
बिलकुल सही कह रही है शन्नो दीदी, इंसान तो गलतियों का पुतला है, जितना मिनीमाइज कर सके वही प्रयास हम सब करते है < खुबसूरत कविता हेतु आपका आभार |
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