मुक्तिका:
..... बना दें
संजीव 'सलिल'
*
'सलिल' साँस को आस-सोहबत बना दें.
जो दिखलाये दर्पण हकीकत बना दें..
जिंदगी दोस्ती को सिखावत बना दें..
मदद गैर की अब इबादत बना दें.
दिलों तक जो जाए वो चिट्ठी लिखाकर.
कभी हो न हासिल, अदावत बना दें..
जुल्मो-सितम हँस के करते रहो तुम.
सनम क्यों न इनको इनायत बना दें?
रुकेंगे नहीं पग हमारे कभी भी.
भले खार मुश्किल बगावत बना दें..
जो खेतों में करती हैं मेहनत हमेशा.
उन्हें ताजमहलों की जीनत बना दें..
'सलिल' जिंदगी को मुहब्बत बना दें.
श्रम की सफलता से निस्बत करा दें...
Comment
apki gungrahakata ko naman.
"जो खेतों में करती हैं मेहनत हमेशा.
उन्हें ताजमहलों की जीनत बना दें.."
बहुत सुन्दर रचना विविध भावों से युक्त और सौरभ जी ने ठीक कहा आपको पढना मस्तिष्क को खुराक मिलने के सामान है |
आदरणीय सलिलजी, आपको पढ़ना हमेशा से मन के लिये अपरिमित सुख का कारण होता है. साथ ही दिमाग़ को भी ख़ुराक़ मिलती है.
सादर.
aadarniy aachary ji,
aapki kalam har baar kamaal karti hai.
hamesha se hi aap ki kalam se us garib k liye nikla hai jisne mehnat to ki lekin fal koi aur chhin gaya.
badhai.
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