दोहा पंचक. . . . प्रेम
अधरों पर विचरित करे, प्रथम प्रणय आनन्द । 
चिर जीवित अभिसार का, रहे मिलन मकरंद ।।
खूब हुआ अभिसार में, देह- देह का द्वन्द्व ।
जाने कितने प्रेम के, लिख डाले फिर छन्द ।।
मदन भाव झंकृत हुए, बढ़े प्रणय के वेग ।
अधरों के बैराग को, मिला अधर का नेग ।।
धीरे-धीरे रैन का , बढ़ने लगा प्रभाव ।
मौन चरम अभिसार के, मन में जले अलाव ।।
नैन समझते नैन के, अनबोले स्वीकार ।
स्पर्शों के दौर में, दम तोड़ें इंकार ।।
सुशील सरना / 23-3-24
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
वाह वाह वाह... क्या ही खूब शृंगार का रसास्वाद कराया है। बहुत बढ़िया दोहे हुए है। आखिरी दोहे ने तो मुग्ध कर दिया।
नैन समझते नैन के, अनबोले स्वीकार ।
स्पर्शों के दौर में, दम तोड़ें इंकार ।।
इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार करें। सादर
आ. भाई सुशील जी, अभिवादन। अच्छे दोहे हुए हैं। हार्दिक बधाई।
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