सर्फ़ का घोल लेके वो बच्चा हवा में बुलबुले उड़ा रहा था
कुछ उनमें से फूट जाते थे खुद-ब-खुद
कुछ को वो फोड़ देता था उँगलियाँ चुभाकर
और कुछ उड़कर चले जाते थे
उसकी पहुँच से बहुत दूर
ऐसा ही एक बुलबुला
जाकर चस्प हो गया था आसमान पर
चाँद की शक्ल में
हर रात छत पर जाके मैं तकता रहता हूँ आकाश को
लगता है उफनता हुआ चाँद भी शायद
बुलबुले सा
लहराता हुआ उतर आएगा मेरी छत पर |
Comment
bahut bahut dhanyawad ...Vivek ji...
दिल को छू लेने वाली नज़्म बन पड़ी है. मुबारकबाद.
गणेशभाई, आपने सुझाव के तौर पर बहुत गहरी बात कही है. बहुत-बहुत धन्यवाद.
वीरेंद्र जी मैं आपको version जो भेजा था वो केवल उदाहरण स्वरुप भेजा था कि बगीचे के झाड़ियों को काट छाट कर देने से वो झाड़ियाँ और भी खुबसूरत हो जाती है | :-)
Saurabh sir...aapka protsahan hamesha hi prernadayak hota hai...bahut bahut shukriya...
Arun ji...bas ek khyal aaya aur use shabdon me dhalne ki koshish ki hai...yadi ruchikar lagi ho to likhna sarthak hua..bahut dhanyawad...
Ganesh bhaiya...bahut bahut dhanyawad...kintu aapka version mujhe jyada acha laga...
इस चाँद को न छू देना, न ही छूने देना. हर किसी को उसके चाँद का छू जाना और फिर उसका फूट जाना कभी भी अच्छा नहीं लगता.
*****
इस रुमानी रचना के लिये बधाइयाँ.
वीरेंद्र जी यह रचना स्वतः स्फुटित ह्रदय की आवाज जैसी लगती है , सुंदर कथ्य, बधाई आपको |
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