गुफ़्तगु तो बहुत हैं मगर क्या बात करें,
ग़म ए ज़िंदगी बहुत है, मगर क्या बात करें।
कहते हैं दुःख बांटने से कम हो जाता है ,
मगर शब्द ही मुंह से न निकलें , फिर क्या बात करें।
ज़िंदगी ने सिखाया कि रोना नहीं है ,
मगर अश्क़ ही न थम पाएं , फिर क्या बात करें।
आप उनकी ख़ातिर मर-मर के जिये हैं ,
वो फिर भी न समझ पाएं , फिर क्या बात करें।
है बड़ी कुंद सी मेरी ये ज़िन्दगी ,
झूठे ही मुस्कुराये ,फिर क्या बात करें।
नाहक़ ही उन्हें कोई कुछ भी ना बताये,
किस्मत ही ऐसी पाई, फिर क्या बात करें।
ना जाना कभी, ना समझा कभी,
ग़र अब भी समझ जाएँ , फिर क्या बात करें ?
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सुधीर ठाकुर जी, इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई. आपकी प्रस्तुति से गुजरते हुए महसूस हुआ कि आपकी कहन का अंदाज़ और झुकाव ग़ज़ल की तरफ है. संभवतः. ओबीओ पटल पर ग़ज़ल की कक्षा उपलब्ध है यदि आप चाहें तो पूरे अध्याय पढ़ जाएँ. आपके भावों और शब्दों को यदि ग़ज़ल में पिरोया जाता तो कुछ 212x4 में यूं ग़ज़ल कही जा सकती है. केवल उदाहरण के लिए- आपकी इस पंक्ति को आधार मानते हुए-
है बड़ी / कुंद सी / मेरी ये / ज़िन्दगी
212 / 212 / 212 / 212
गुफ़्तगू तो बहुत हम मगर क्या करें,
ज़िंदगी में कई गम मगर क्या करें
कहते गम बांटने से सदा होते कम,
लफ्ज़ ही तोड़ते दम मगर क्या करें
ज़िंदगी ने सिखाया कि रोना नहीं,
आँखों के पोर हैं नम मगर क्या करें
आप मर-मर के जिन के लिए जी रहे,
वो समझते रहे कम मगर क्या करें
है बड़ी कुंद सी मेरी ये ज़िन्दगी ,
झूठ ही आज हम-दम मगर क्या करें
इसलिए तो उन्हें कुछ बताते नहीं,,
हम रहे सारी शब् नम मगर क्या करें
ये न जाना न समझा कभी आपने
किसलिए आज पुरनम मगर क्या करें
सादर
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