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ग़ज़ल (वो गर हमसे नज़रें मिलाने लगेंगे)

122 - 122 - 122 - 122 

वो गर हमसे नज़रें मिलाने लगेंगे 

रक़ीबों पे बिजली गिराने लगेंगे 

ये लकड़ी है गीली उठेगा धुआँ ही  

सुलगने में इसको ज़माने लगेंगे 

करोगे जो बातें बिना पैर-सर की

कई इनमें फिर शाख़साने लगेंगे 

उमीदों को जिसने न मरने दिया हो

हदफ़ पर उसी के निशाने लगेंगे 

तेरी शाइरी से परेशाँ हैं जो-जो 

तेरी नज़्में ख़ुद गुनगुनाने लगेंगे 

ये जो बात तुमने कही है बजा है 

सदाक़त में लेकिन ज़माने लगेंगे 

महब्बत की ऐसी हवा चल पड़ी है 

कि पंछी अभी चहचहाने लगेंगे 

कोई उन के आने की दे गर निशानी 

तो हम अपने घर को सजाने लगेंगे 

"मौलिक व अप्रकाशित" 

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Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 10, 2022 at 12:06pm

शुक्रिया मुहतरम।

Comment by Samar kabeer on September 10, 2022 at 10:54am

'जो तुमने कहा कैसे होगा ये साबित 

 सदाक़त में इस की ज़माने लगेंगे'

ये ठीक है । 

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 9, 2022 at 10:25pm

मुहतरम समर कबीर साहिब आदाब, ग़ज़ल पर आपकी तशरीफ़ आवरी का तह-ए-दिल से शुक्रिया।

'ये जो बात तुमने'... पर आपसे सहमत हूँ। ज़रा इस पर नज़र् ए सानी फ़रमाएं -

जो तुमने कहा कैसे होगा ये साबित 

 सदाक़त में इस की ज़माने लगेंगे 

Comment by Samar kabeer on September 9, 2022 at 6:20pm

जनाब अमीरुद्दीन जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्चा है, बधाई स्वीकार करें I 

'ये जो बात तुमने कही है बजा है 

सदाक़त में लेकिन ज़माने लगेंगे'--इस शे`र के दोनों मिसरों में मुझे रब्त महसूस नहीं हुआ I  

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