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मगर होता नहीं दिखता - गजल

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२

जमीं पर बीज उल्फत के कोई बोता नहीं दिखता.

लगाता प्रेम सरिता में कोई गोता नहीं दिखता.

 

करे अपराध कोई और ही उसकी सजा पाए,

वो कहते हैं हुआ इंसाफ़, पर होता नहीं दिखता.

 

झरोखे हैं न आँगन है, न दाना है न गौरैया,

सुनाये राम का जो नाम वह तोता नहीं दिखता. 

 

सभी बेटों ने अपनी एक नई दुनिया बसा ली है,

कि अब दादी के’ हाथों में यहाँ पोता नहीं दिखता.

 

हुए जंगल नदारद सब, बचे बस ठूँठ पेड़ों के,

बुझा दे प्यास वन में जो कहीं सोता नहीं दिखता.

 

लुटे कोई पिटे कोई किसी को कुछ नहीं मतलब,

पराये दुख में अब कोई यहाँ रोता नहीं दिखता. 

 

यहाँ साहित्यकारों की यक़ीनन है बड़ी महफ़िल,

सभी अपनी सुनाते हैं कोई श्रोता नहीं दिखता.

"मौलिक एवं अप्रकाशित"

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 5, 2020 at 6:35pm

आ. भाई बसन्त जी, सादर अभिवादन । सुन्दर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।

Comment by Chetan Prakash on October 5, 2020 at 12:19pm

ग़जल छोटी हो, लेकिन सरोकारों को आगे रखकर लिखी जाए तो श्रोता अथवा पाठक गद्-गद् हो जाता है, मेरी मनःस्थिति भी ग़ज़ल पढ़ते हुए कदाचित ऐसी ही थी। ग़जलकार श्री बसंत कुमार शर्मा को हृदय-तल से मेरी बधाई और भविष्य के लिए शुभकामनाए एतद्वारा प्रस्तुत हैं।

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