For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ग़ज़ल (वो नज़र जो क़यामत की उठने लगी)

फ़ाइलुन -फ़ाइलुन - फ़ाइलुन -फ़ाइलुन
2 1 2 - 2 1 2 - 2 1 2 - 2 1 2


वो नज़र जो क़यामत की उठने लगी 

रोज़ मुझपे क़हर बनके गिरने लगी

रोज़ उठने लगी लगी देखो काली घटा
तर-बतर ये ज़मीं रोज़ रहने लगी

जबसे तकिया उन्होंने किया हाथ पर
हमको ख़ुद से महब्बत सी रहने लगी

एक ख़ुशबू जिगर में गई है उतर
साँस लेता हूँ जब भी महकने लगी

उनकी यादों का जब से चला दौर ये
पिछली हर ज़ह्न से याद मिटने लगी

वो नज़र से पिला देते हैं अब मुझे
मय-कशी की वो लत साक़ी छुटने लगी

अब फ़ज़ाओं में चर्चा  यही आम है
सुब्ह से ही ये क्यूँ शाम सजने लगी

दिल पे आने लगीं दिलनशीं आहटें

अब ख़ुशी ग़म के दर पे ठिटकने लगी

लौट आए वो दिन फिर से देखो 'अमीर' 

उम्र अपनी लड़कपन सी दिखने लगी

"मौलिक व अप्रकाशित"

Views: 2318

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 15, 2020 at 12:18pm
आ. अमीरुद्दीन अमीर साहब,
"आप किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं तभी तो येन केन प्रकारेण आपका उद्देश्य सिर्फ मुझे नीचा दिखाना प्रतीत होता है," आपकी यह टिप्पणी आपकी ग़ज़ल के मतले की तरह दोषपूर्ण है अत: मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा.
आप को मानना है तो मानिये अन्यथा जैसा उचित लगे वैसा करें.. लेकिन इससे आपकी ग़ज़ल के मतले का दोष नहीं ढँकने वाला..
इस मंच की परिपाटी है कि सदस्यों की रचनाओं का क्रिटिकल एनालिसिस होता है और इसी परम्परा के तहत आ. समर साहब ने और बाद में मैंने भी अपने सीमित ज्ञान के अनुसार आप की रचना को बेहतर करने का प्रयास किया है .. इस में हमारा लाभ सिर्फ समय की बर्बादी है लेकिन आपका लाभ यह है कि आपकी रचना और निखर सकती है.चॉइस आपकी है.. वैसे काफ़िया के विधान पर लिंक भेजी है कमेंट में, समय मिले तो मुक्त मन से देख लीजियेगा.
मेरी पिछली टिप्पणी में मुझ से एक त्रुटी हुई है जिसकी ओर ध्यान दिलाने के लिए आपका आभार लेकिन इस के बाद भी मेरे क़वाफ़ी दुरुस्त हैं क्यों की उमड़ते और बिछड़ते योजित काफ़िया होने के बाद भी दोनों के मूल शब्द उमड़/ बिछड़ में "अड़" ध्वनि की राइम है.. आप का काफिया योजित है लेकिन मूल शब्दों में कोई राइम नहीं है..
सादर
Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 15, 2020 at 12:07am

आदरणीय जनाब नीलेश 'नूर' साहिब, ऐसा लगता है कि आप किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं तभी तो येन केन प्रकारेण आपका उद्देश्य सिर्फ मुझे नीचा दिखाना प्रतीत होता है, अगर ऐसा नहीं होता तो अपने लिये और मेरे लिये अलग अलग मानदण्ड स्थापित नहीं करते, ज़रा एक बार फिर से अपना कमेन्ट पढ़िए :

//आप ने मेरी ग़ज़ल कोट की.. अच्छा लगा..

उमड़ते.. बिछड़ते .. रगड़ते आदि में डते स्थायी है लेकिन म, छ, ग आदि चपल हैं जो रायमिंग हैं.. जैसे पड़ते , सड़ते, बिछड़ते आदि..

मतले के क़वाफ़ी बिछड़ते , उमड़ते में बि अथवा उ हटाने से छड़ने .. मड़ने बचता है जो दोनों निरर्थक हैं अत: ये दोनों काफ़िये की आवश्यकता को पूर्ण करते हैं..

आपकी ग़ज़ल में ने हटाकर गिर और उठ बचता है जो सार्थक हैं अत: यह दोष है..//

मेरे क़ाबिल दोस्त आपकी ग़ज़ल के मतले के क़वाफ़ी 

उमड़ते - बिछड़तेे  हैं जबकि मेरी ग़ज़ल के मतले के क़वाफ़ी

  उठने -     गिरने  हैं।

आपने बताया है कि आपकी ग़ज़ल के क़वाफ़ी से पहला हर्फ़ उ और बि हटाकर बचे शब्द मड़ते, छड़ते बचते हैं जो निरर्थक हैं और क़ाफ़िये की आवश्यकता को पूर्ण करते हैं।

जबकि मेरी ग़ज़ल के क़वाफ़ी के आख़िरी हर्फ़ के बारे में आपका कथन है कि :

//आपकी ग़ज़ल में ने हटाकर गिर और उठ बचता है जो सार्थक हैं अत: यह दोष है.//

अपनी ग़ज़ल के क़वाफ़ी से पहला हर्फ़ और

मेरी ग़ज़ल के क़वाफ़ी से आख़िरी हर्फ़......... क्यों साहिब ये दोहरापन क्यों ???

कृपया बताइयेगा कुछ और बात तो नहीं है ?, सादर। 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 14, 2020 at 2:50pm

आ. अमीरुद्दीन "अमीर" साहब,
अधिक विस्तार के लिए 
http://www.openbooksonline.com/group/gazal_ki_bateyn/forum/topics/5...

लिंक पढ़ें अथवा होम पेज पर नीचे काफ़िया पढ़ें 
सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 14, 2020 at 2:42pm

आ. अमीरुद्दीन "अमीर" साहब,

ग़ज़ल मतले से शरुअ होती है और अगर मतले में ही दोष नज़र आ जाए तो आगे बढ़ा नहीं जाता.. जिस गाडी का इंजन स्टार्ट न होता हो, उस में लम्बी यात्रा का प्लान कम से कम मैं नहीं करता.. और फिर ऐसी गाड़ी के इंटीरियर, फीचर्स आदि की तारीफ़ करना बाद की बात है.
आप ने मेरी ग़ज़ल कोट की.. अच्छा लगा..
उमड़ते.. बिछड़ते .. रगड़ते आदि में डते स्थायी है लेकिन म, छ, ग आदि चपल हैं जो रायमिंग हैं.. जैसे पड़ते , सड़ते, बिछड़ते आदि..
मतले के क़वाफ़ी बिछड़ते , उमड़ते में बि अथवा उ हटाने से छड़ने .. मड़ने बचता है जो दोनों निरर्थक हैं अत: ये दोनों काफ़िये की आवश्यकता को पूर्ण करते हैं..
आपकी ग़ज़ल में ने हटाकर गिर और उठ बचता है जो सार्थक हैं अत: यह दोष है...
मैं भी आप ही की तरह था.. शायद हूँ भी.. आसानी से नहीं मानता लेकिन जब OBO पर शास्त्र सीखा तब सबसे पहले अपनी 300 ग़ज़लें.. कूड़ेदान में डाली क्यूँ कि वो मानकों पर न थीं..
अब भी किताब छपाने से डरता हूँ कि खिन कोई दोषपूर्ण ग़ज़ल मेरे नाम से चस्पा न हो जाए.. सॉफ्ट कभी भी बदली जा सकती है..
छपने के बाद बदलना संभव नहीं होता..
बाकी जैसी आपकी श्रद्धा...मंच पर बहुत से नए लोग हैं.. टीका का उद्देश्य यही है कि वो सही सीख सकें और उन्हें अपनी 300 ग़ज़लें ख़ारिज न करनी पड़ें..
सादर   

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 13, 2020 at 9:56am

आदरणीय नीलेश "नूर" साहिब आदाब अर्ज़ करता हूँ। मुहतरम आप ख़ाक़सार की ग़ज़ल पर तशरीफ़ लाए ये मेरे लिए बाइस-ए-मसर्रत है आप सुख़न-ओ-तहज़ीब का गहवारा हैं, मुहतरम समर कबीर साहिब भी आपकी ग़ज़लों के मिसरों पर तरही ग़ज़ल कह चुके हैं मगर मुहतरम, अहक़र अक्सर आपकी मुबारकबाद, दाद ओ तनक़ीद से महरूम रहा है आज इतना शर्फ़ तो हासिल हुआ कि आप ग़ज़ल पर तशरीफ़ लाए और क़वाफ़ी पर तनक़ीद की मगर मायूसी इस वजह से हुई कि आप जैसे सुख़न नवाज़ तालीम याफ़्ता और क़ाबिल शख़्स ने सामान्य शिष्टाचार की औपचारिकता (सामान्य अभिवादन) तक को तिलांजलि दे दी है रचना के उजले पक्ष को देखने उत्साहवर्धन या मार्गदर्शन करने की तो उम्मीद करना तो ही बेमानी है। अब आपकी टिप्पणी का जवाब :

//इतनी लंबी बहस से बेहतर होता कि आप क़वाफी दुरुस्त कर लेते।

आपके क़वाफी में "ने" स्थायी है अतः वो रदीफ़ का हिस्सा बन गया है।

अब इसे हटा कर उठ और गिर में क्या राइमिंग है ये आप स्वयं तय कर सकते हैं।//

जनाब नूर साहिब क्या ग़ज़ल के क़वाइद बदल गये हैं अगर बदल गये हैं तो सबसे पहले अपनी तमाम ग़ज़लों के क़वाफ़ी दुरुुस्त कर लीजिए क्योंकि आपकी ही नहीं हर किसी ग़ज़ल में रदीफ़ से पहला हर्फ़ मुक़र्रर आना लाज़िमी है यानि क़ाफ़िये का आख़िरी हर्फ़। मिसाल के तौर पर आपकी ही एक ग़ज़ल के चन्द अश'आ़र पेश करता हूँ :

सँभाले थे तूफ़ाँ उमड़ते हुए

मुहब्बत से अपनी बिछड़ते हुए.

समुन्दर नमाज़ी लगे है कोई

जबीं साहिलों पे रगड़ते हुए.

हिमालय सा मानों कोई बोझ है

लगा शर्म से मुझ को ड़ते हुए.     

अगर आपकी ईजाद किर्दा थ्योरी के मुताबिक़ इस ग़ज़ल की रदीफ़ ड़ते हुए मान ली जाए ? तो फिर

उम, बिछ, रग और ग में क्या राइमिंग है?  बताइएगा ज़रूर। सादर। 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 12, 2020 at 10:22pm

आ. अमीरुद्दीन साहब,

इतनी लंबी बहस से बेहतर होता कि आप क़वाफी दुरुस्त कर लेते।

आपके क़वाफी में "ने" स्थायी है अतः वो रदीफ़ का हिस्सा बन गया है।

अब इसे हटा कर उठ और गिर में क्या राइमिंग है ये आप स्वयं तय कर सकते हैं।

सादर

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 12, 2020 at 10:03pm

मुहतरम जनाब हर्ष महाजन जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई के लिये बहुत बहुत शुक्रिया। 

जनाब इसमें कोई शक नहीं कि स्वस्थ परिचर्चा से बहुत कुछ सीखने को मिलता है आदरणीय, इस मंच की यही ख़ूबसूरती है। 

Comment by Harash Mahajan on September 12, 2020 at 9:18pm

पहले टिप्पणी फिर परिचर्चा बेहद खूबसूरत । आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' जी आदाब । आपकी ग़ज़ल बहुत ही उम्दा लगी । सबसे पहले तो मेरी जानिब से वहुत बहुत बधाई । गुणीजनों की रचनाओं से हमेशां आत्मसात करने को मिल ही जाता है । आपकी इस पेशकश से भी बहुत कुछ सीखने को है । शुरू से लेकर आख़िर तक टिप्पणियाँ पढ़ने योग्य हैं । नए सीखने वालों के लिए ये टिप्पणियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं । सच कहूँ तो ऐसे इंतखाबों के लिए एक अलग ब्लॉग हो जिसमें गुणीजनों की चर्चाएं सँजो कर रखनी चाहिए । उदाहरणार्थ चीजें जल्द समझ आ जाती हैं ।
बहुत बहुत शुक्रिया ।
सादर ।

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 12, 2020 at 6:41pm

//भाई, मैं कोई उस्ताद नहीं हूँ, मह्ज़ ओबीओ का एक ख़ादिम हूँ....... //

जनाब हमने आप ही को उस्ताद तस्लीम किया है और उम्मीद करते हैं कि आप भी हमें शागिर्द तस्लीम करेंगे।  सादर। 

Comment by सालिक गणवीर on September 12, 2020 at 6:13pm

मुहतरम समर कबीर साहिब.

आदाब

जनाब ये आपका बड़प्पन है, आप हमें भले आपका शागिर्द न माने लेकिन हम तो आपको अपना उस्ताद मानते हैं आदरणीय.

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post तरही ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी
"आदरणीय सौरभ भाई , दिल  से से कही ग़ज़ल को आपने उतनी ही गहराई से समझ कर और अपना कर मेरी मेनहत सफल…"
9 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल -मुझे दूसरी का पता नहीं ( गिरिराज भंडारी )
"आदरणीय सौरभ भाई , गज़ाल पर उपस्थित हो उत्साह वर्धन करने के लिए आपका ह्रदय से आभार | दो शेरों का आपको…"
9 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on गिरिराज भंडारी's blog post तरही ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी
"इस प्रस्तुति के अश’आर हमने बार-बार देखे और पढ़े. जो वाकई इस वक्त सोच के करीब लगे उन्हें रख रह…"
12 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल -मुझे दूसरी का पता नहीं ( गिरिराज भंडारी )
"आदरणीय गिरिराज भाईजी, बहरे कामिल पर कोई कोशिश कठिन होती है. आपने जो कोशिश की है वह वस्तुतः श्लाघनीय…"
13 hours ago
Aazi Tamaam replied to Ajay Tiwari's discussion मिर्ज़ा ग़ालिब द्वारा इस्तेमाल की गईं बह्रें और उनके उदहारण in the group ग़ज़ल की कक्षा
"बेहद खूबसूरत जानकारी साझा करने के लिए तहे दिल से शुक्रिया आदरणीय ग़ालिब साहब का लेखन मुझे बहुत पसंद…"
yesterday
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-177

आदरणीय साहित्य प्रेमियो, जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर…See More
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post पूनम की रात (दोहा गज़ल )
"धरा चाँद गल मिल रहे, करते मन की बात।   ........   धरा चाँद जो मिल रहे, करते मन…"
Monday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post कुंडलिया
"आम तौर पर भाषाओं में शब्दों का आदान-प्रदान एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। कुण्डलिया छंद में…"
Monday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post अस्थिपिंजर (लघुकविता)
"जिन स्वार्थी, निरंकुश, हिंस्र पलों का यह कविता विवेचना करती है, वे पल नैराश्य के निम्नतम स्तर पर…"
Monday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-124 (प्रतिशोध)
"आदरणीय  उस्मानी जी डायरी शैली में परिंदों से जुड़े कुछ रोचक अनुभव आपने शाब्दिक किये…"
Jul 31
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-124 (प्रतिशोध)
"सीख (लघुकथा): 25 जुलाई, 2025 आज फ़िर कबूतरों के जोड़ों ने मेरा दिल दुखाया। मेरा ही नहीं, उन…"
Jul 30
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-124 (प्रतिशोध)
"स्वागतम"
Jul 30

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service