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नाज़ नख़रों का अंदाज़ अच्छा लगा
इस मुहब्बत का आग़ाज़ अच्छा लगा-1
सोचा था हम न देखेंगे मुड़ के कभी
पर बुलाने का अंदाज़ अच्छा लगा-2
बेदख़ल दिल से हमको न करना कभी
धड़कनों का तेरा साज़ अच्छा लगा-3
मेरी ख़ालिस मुहब्बत को ठुकरा के क्यूँ
यार तुमको दग़ाबाज़ अच्छा लगा-4
वाहवाही करें क्यूँ न महफ़िल में हम
"सरफ़राज़" इक सुख़न-साज़ अच्छा लगा-5
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय आशीष यादव जी बहुत नवाज़िश
आदरणीय लक्ष्मण धामी मुसाफ़िर जी ग़ज़ल तक आने के लिये बहुत शुक्रियः
आदरणिया मधु जी ग़ज़ल तक आने के लिये बेहद शुक्रियः
मुहतरमा डिंपल शर्मा जी ग़ज़ल तक आने के लिये बेहद शुक्रियः
उस्तादे मुहतरम समर कबीर साहब इस्लाह के लिये बेहद शुक्रगुज़ार हूँ सहीह कर लेता हूँ सलामत रहें
बहुत बढ़िया। बधाई स्वीकार कीजिए।
आदरणीय सरफ़राज जी आदाब ,वाह बहुत ख़ूब ग़ज़ल हुई है आदरणीय, मतले का शेर बहुत ख़ूब है इस उम्दा ग़ज़ल पर ढेर सारी दाद और बधाइयां आपको आदरणीय।
आदरणीय सरफ़राज़ जी आदाब! ग़ज़ल बहुत ही उम्दा ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद।
जनाब 'सरफ़राज़' जी आदाब, ओबीओ पर आपका स्वागत है ।
ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'सोचा था हम न देखेंगे मुड़ के कभी'
इस मिसरे में 'के' को "कर" करना उचित होगा ।
'बेदख़ल दिल से हमको न करना कभी
धड़कनों का तेरा साज़ अच्छा लगा'
इस शैर के ऊला मिसरे में सहीह शब्द 'बे दख़्ल' 221 है, इस शैर को यूँ कह सकते हैं:-
'हमको बेदख़्ल दिल से न करना कभी
इसकी धड़कन का ये साज़ अच्छा लगा'
मुहतरम लक्ष्मण धामी मुसाफ़िर जी नवाज़िश के लिये आपका दिली शुक्रियः खुशालगढ़ी नहीं कुशलगढ़ी
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