( 2122 1122 1122 22 /112 )
है कोई आरज़ू का क़त्ल जो करना चाहे
कौन ऐसा है जहाँ में कि जो मरना चाहे
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तोड़ देते हैं ज़माने में बशर को हालात
अपनी मर्ज़ी से भला कौन बिखरना चाहे
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आरज़ू सबकी रहे ज़ीस्त में बस फूल मिलें
ख़ार की रह से भला कौन गुज़रना चाहे
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ज़िंदगी का हो सफ़र या हो किसी मंज़िल का
बीच रस्ते में भला कौन ठहरना चाहे
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देख क़ुदरत के नज़ारे है भला कौन बशर
जो कि ये रंग नज़र में नहीं भरना चाहे
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प्यार वो कश्ती है जिस पर जो चढ़ा है इक बार
कौन है ऐसा जो फिर उस से उतरना चाहे
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जिस परिंदे ने फ़लक देख लिया चाहे क्यों
उसके सय्याद कोई पंख कतरना चाहे
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आतिश-ए-ग़म की तलब कौन जहाँ में करता
हर कोई ज़ीस्त में खुशियों का ही झरना चाहे
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अपनी मर्ज़ी से चुने कौन शब-ए-हिज्र 'तुरंत'
कौन है मीत से जो वस्ल न करना चाहे
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी |
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'प्यार वो कश्ती है जिस पर जो चढ़ा है इक बार
कौन है ऐसा जो फिर उस से उतरना चाहे'
इस शैर को और बहतर किया जा सकता है ।
'जिस परिंदे ने फ़लक देख लिया चाहे क्यों
उसके सय्याद कोई पंख कतरना चाहे'
इस शैर का शिल्प कमज़ोर है,देखियेगा ।
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