ऐ पागल पथिक ! ठहरो जरा ,
रुको जरा , सांस लो तनिक ,
सम्भलो जरा I
सब कुछ पाने की चाह में ,
कुछ टूट गया उस आशियाने में,
कुछ छूट गया उस हसीं फ़सानें में ,
ठहरों, रुको, उसे सवारों, उसे खोजो जरा I
रुको जरा ........
घर पर नन्हों की आस में ,
और बुजुर्गों की लम्बी प्यास में ,
छूटे किसी साज और रियाज़ में ,
वक्त की चीनी घोलो जरा, कोई सुर ताल छेड़ो जरा I
रुको जरा ........
लूडो की गोटियाँ खोजो ,
शतरंज की बिसात बिछाओ जरा ,
कैरम की धूल झाड़ो,
रानी पर नजर लगाओ जरा I
रुको जरा .......
पर भूल न जाना एक नेक काम ,
फिर हो न जाना मशरूफ़ अपने आप में ,
आस-पास देखो, कोई सुदामा खड़ा हो किसी आस में ,
बन कृष्ण झोली भरो , मानव धर्म निभाओं जरा I
रुको जरा .......
माना कि वक़्त सख़्त है,
रूठा है हमसे वो ख़ुदा तो क्या ,
शून्य हुई संवेदनाओं में , पथरा गई आँखों में ,
कुछ रक्त संचार करो, कुछ आशाओं के दीप जलाओ जरा I
रुको जरा .......
इस साझी जंग में अपनी भूमिका निभाओ जरा ,
हम होंगें कामयाब ! दिल से एक अरदास लगाओ तो जरा I
रुको जरा , सांस लो तनिक ,
सम्भलो जरा I
"मौलिक व् अप्रकाशित "
Comment
आदरणीय समर कबीर जी उत्साहवर्धन एवम् बधाई के लिए हार्दिक आभार।
मुहतरमा डॉ. गीता चौधरी जी आदाब,अच्छी कविता लिखी आपने,बधाई स्वीकार करें ।
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