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कौन सा साहित्य रचते हो ( 2 )--डॉo विजय शंकर

भरा पड़ा है साहित्य ,
ऐसा साहित्य जो,
कभी जुड़ नहीं पाया लोगों से ,
आम आदमी से , सीमित रह गया एक
अत्यंत सूक्ष्म तथाकथित उच्च सभ्रांत वर्ग में |
वेद , गीता , पुराण , भरा-बिखरा पड़ा है ज्ञान ही ज्ञान ,
मिल जाएगा , ढेरों मिल जाएगा , इनसे , उनसे ,
ऋचाओं से , श्रुतियों से , स्मृतियों से , संहिताओं से ,
बस , जुड़ नहीं पाया कभी दाल रोटी की समस्याओं से |
वह सर्वस्व है , वह यहां है , वहां है ,
अन्न अन्न के दाने दाने में है , सर्वत्र है वह ,
वह सर्वस्व है, सर्वत्र है , शास्त्रों के विधान में है,
नहीं है , तो स्वयं राजा के ज्ञान में
नहीं है , तो जन जन के संज्ञान में ,
क्या लाभ उस ज्ञान से
जो सिर्फ दिखाने , झाड़ने के लिए हो,
ओढ़ने - बिछाने के लिए न हो,
न आम जन तक पहुँच पाये ,
न सम्पूर्ण जन जीवन में उतर पाये ,
जिसके गूढ़ अर्थ हम आज भी न ढूंढ पाये ,
व्याख्या करते गए , जीवन में न उतार पाये ||

मौलिक एवं अप्रकाशित.
डा० विजय शंकर

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Comment by Dr. Vijai Shanker on February 25, 2015 at 6:40am
आदरणीय सोमेश कुमार जी, आप द्वारा रचना के मर्म को स्वीकार करने के लिए आपका आभार है , बधाई हेतु धन्यवाद, सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on February 25, 2015 at 6:38am
आदरणीय राजेश कुमारी जी, आप द्वारा रचना की गहराई को स्वीकार करने के लिए आपका आभार है , बधाई हेतु धन्यवाद, सादर।
Comment by somesh kumar on February 24, 2015 at 10:01pm

सुंदर विश्लेषण है साहित्य के वर्क पे ,ऐसा साहित्य से जो विद्वता के नाम पर आम आदमी से कटा पड़ा है |कोटि-कोटि बधाई इस रचना पर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 24, 2015 at 8:33pm

क्या लाभ उस ज्ञान से
जो सिर्फ दिखाने , झाड़ने के लिए हो,
ओढ़ने - बिछाने के लिए न हो,
न आम जन तक पहुँच पाये ,
न सम्पूर्ण जन जीवन में उतर पाये ,
जिसके गूढ़ अर्थ हम आज भी न ढूंढ पाये ,
व्याख्या करते गए , जीवन में न उतार पाये ---बहुत गहरी पंक्तियाँ लिखी हैं 

इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय .

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 24, 2015 at 4:12am
आदरणीय हरी प्रकाश दुबे जी, आपको रचना पसंद आई , आभार, रचना के विचारों की स्वीकृति एवं रचना की प्रशस्ति हेतु आपका ह्रदय से धन्यवाद , सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on February 24, 2015 at 4:09am
नमस्कार आदरणीय समर कबीर जी, आपने रचना को पसंद किया , आपका ह्रदय से धन्यवाद , सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on February 24, 2015 at 4:07am
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी, आपने विचार को स्वीकृति दी , रचना को पसंद किया , आपका बहुत बहुत धन्यवाद , सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on February 24, 2015 at 4:05am
आदरणीय महिर्षि त्रिपाठी जी, आपने विचार को स्वीकृति दी , आपका बहुत बहुत धन्यवाद , सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on February 24, 2015 at 4:03am
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय डॉ O गोपाल नारायण जी, उत्साह वर्धन के लिए , सादर।
Comment by Hari Prakash Dubey on February 23, 2015 at 11:28pm

आदरणीय डॉ विजय शंकर सर, सुन्दर रचना . 

क्या लाभ उस ज्ञान से
जो सिर्फ दिखाने , झाड़ने के लिए हो,
ओढ़ने - बिछाने के लिए न हो,
न आम जन तक पहुँच पाये ,
न सम्पूर्ण जन जीवन में उतर पाये ,
जिसके गूढ़ अर्थ हम आज भी न ढूंढ पाये ,
व्याख्या करते गए , जीवन में न उतार पाये ....बहुत व्यवहारिक बात कही है आपने एकदम सत्य, हार्दिक बधाई ! सादर

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