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यूँ चाँद का नकाब उतारा न कीजिये (ग़ज़ल 'राज')

२२१ २१२१ १२२१ २१२

बह्र-ए-मज़ारअ मुसम्मिन अखरब मकफूफ़

 

यूँ भीड़ में जनाब पुकारा न कीजिये

रुसवा हमें यूँ आप दुबारा न कीजिये

 

बिलकुल खुली किताब है चेहरा ये आपका

हर रोज पढ़ रहे हैं इशारा न कीजिये

 

नाराज हो न जाएँ सितारे औ आसमाँ

यूँ चाँद का नकाब उतारा न कीजिये

 

मौजे मचल रही हैं तुम्हे देख देख कर

गर पाँव चूम लें तो किनारा न कीजिये

 

गुलशन उदास होगा परेशान डालियाँ

यूँ रास्ते गुलों से सँवारा  न कीजिये 

 

अपनी हमें  न फिक्र जमाने की फिक्र है

बेवक्त इन्तजार हमारा न कीजिये

 

गुस्ताख़ दिल कहीं न भुला दे रिवायतें

जज्बात यूँ हमारे उभारा न कीजिये

--मौलिक एवं अप्रकाशित 

 

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Comment

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Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 12, 2017 at 5:06pm
आदरणीया राजेश दीदी!
बेहतरीन गजल हुई है, बधाई स्वीकार करें।
//नाराज हो न जाएँ सितारे औ आसमाँ
यूँ चाँद का नकाब उतारा न कीजिये//
गजब क्या बात है।
Comment by नाथ सोनांचली on February 12, 2017 at 3:33pm
आद0 बहन राजेश कुमारी जी सादर अभिवादन। अच्छी ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ । सादर
Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 12, 2017 at 2:30pm

आदरणीया राजेश जी इस रचना के लिए ढेर सारी बधाई स्वीकार करें ..इतने दिनों में मंच की आत्मीयता भरे माहोल से आश्वस्त होने के कारन मैं अपने मन में उठने वाले प्रश्नों को निवेदन के साथ प्रेषित करने में अपने आप को सहज पाता हूँ / इसी भावना के साथ अपनी जानकारी को सुदृढ़ करने हेतु समाधान हेतु निवेदन है / मेरे प्रश्न बेबजह के भी हो सकते हैं लेकिन अगर मन में उठ ही गए हैं तो पूछ लेना उचित हैं
यूँ भीड़ में जनाब पुकारा न कीजिये
रुसवा हमें यूँ आप दुबारा न कीजिये...पुकारा न कीजिये से लग रहा है पुकारने की आदत है और दुबारा से लग रहा है सिर्फ एक बार ही पुकारा था दूसरी बार न पुकारे ..यदि यह गलती कई बार की है तो कोई और शब्द होना चाहिए ऐसा मुझे लगा इसलिए निवेदन किया
नाराज हो न जाएँ सितारे औ आसमाँ
यूँ चाँद का नकाब उतारा न कीजिये....इस शेर में मुझे लग रहा है कि बात आसमान के चाँद की तो नहीं हो रही है यह बात धरती के किसी खूबसूरत चाँद या किसी हसी के सन्दर्भ में है इसमें मेरे मन में प्रश्न उठ रहा है की क्या सितारे और असमान धरती के चाँद के आंगे उनके चाँद की रौनक फीकी नहीं पड़ने देना चाहते हैं या ...खूबसूरती उन्हें भाती नहीं है ..या नकाब उतारने का तरीका उन्हें पसन् नहीं आया जैसा प्रश्न
अपनी हमें न फिक्र जमाने की फिक्र है
बेवक्त इन्तजार हमारा न कीजिये... दो बार फिक्र का उपयोग हुआ है इस में थोडा असहज महसूस कर रहा हूँ अपनी नहीं हमें तो जमाने की फिक्र है ..आपके मार्गदर्शन के निवेंदन के साथ सादर

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