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ग़ज़ल...गम जहाँ के पहलू में दो चार आ कर बैठ गए

फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
2122 2122 2122 212
गम जहाँ के पहलु में दो चार आ कर रुक गये
हम उसी दोराहे पे तब सकपका कर रुक गये

रहगुज़र तपती हुई होती बसर भी कब तलक
दर्द था इफरात में वो छटपटा कर रुक गये

ये अदा भी खूब है उस संगदिल महबूब की
बिन बताये दिल में आये मुस्कुरा कर रुक गये

ज़ुस्तज़ू दीदार की होती मुकम्मल किस तरह
वो अदा से ओढ़ कर घूँघट लजा कर रुक गये

है फ़ज़ाओं में खबर गुजरेंगे वो इस राह से
मोड़ पर हम सर झुका आँखें बिछा कर रुक गये

(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

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Comment by Samar kabeer on February 4, 2017 at 9:28pm
सानी मिसरे में फिर आपने 'हम'शब्द ले लिया,जो रदीफ़ की मजबूरी भी है, आपका शैर यूँ सही हो सकता है:-

'इस तरह न रूठ हमसे देख तो ए हमसफ़र
हम तेरी मुस्कान पर क्या क्या लुटाकर बैठ गए'
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 4, 2017 at 9:14pm
समझ गया आदरणीय अगर शैर ऐसे कहा जाये "इस तरह रूठों न मुझसे तुम ऐ मेरे हमसफ़र..हम तेरी मुस्कान पर क्या क्या लुटा कर बैठ गए" तो उचित होगा?
Comment by Samar kabeer on February 4, 2017 at 9:08pm
एक ही शैर में 'हम'और 'मेरे'शब्दों के प्रयोग से ये दोष आ जाता है,आपके सानी मिसरे में 'तेरी'शब्द और ऊला मिसरे में 'ओ'शब्द भी यही दोष पैदा कर रहा है,'तेरी'शब्द के साथ 'तुझे'शब्द की तुकान्तता सही होती है,आपको ये शैर फिर से कहना होगा ।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 4, 2017 at 8:59pm
अगर ऐसा किया जाए "इस तरह रूठों न मुझसे तुम ओ मेरे हमसफ़र" तो दोष दूर होगा..??
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 4, 2017 at 8:37pm
आदरणीय समर कबीर जी सादर नमन..आपकी समीक्षात्मक टिप्पड़ी से सदैव कुछ नया सीखने को मिलता है..कृपया शुतरगुर्बा दोष पे थोडा प्रकाश डालें..
Comment by Samar kabeer on February 4, 2017 at 7:30pm
जनाब बृजेश कुमार'ब्रज'साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
आख़री शैर में शुतरगुर्बा दोष है,'हमसे''मेरे',देखियेगा ।

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