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ग़ज़ल - मेरा ‘मै’ ही अनजाना सा लगता है - ( गिरिराज भंडारी )

22   22   22   22   22   2    -- बहरे मीर

सब कुछ जाना पहचाना सा लगता है

मेरा ‘मै’ ही अनजाना सा लगता है

 

जिसकी अपने अन्दर से पहचान हुई

वो फिर सबको दीवाना सा लगता है

 

मन का खाली पन फैला यूँ वुसअत में

जग सारा अब वीराना सा लगता है

 

घर के हर कमरे की चाहत अलग हुई

बूढ़ा छप्पर  गम ख़ाना सा लगता है

 

दिल का हर कोना दिखलाये हैं  लेकिन

हर दिल में इक तहखाना सा लगता है

 

अपनेपन के अंदर भी अब बुना हुआ

षड़यंत्री ताना बाना सा लगता है  

 

मूछें आयीं चेहरे पर, तो जाने क्यूँ

सच कहना भी, समझाना सा लगता है

 

कहो नींद से अब आती है, आ जाये

दिल मेरा कुछ कुछ माना सा लगता है

 

साथ निभाता है हँसने में आँसू भी

अश्क़ों से कुछ याराना सा लगता है

*********************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 15, 2016 at 11:41am

आदरणीय गिरिराज भाईसाब ..बहरे मीर की इस उत्कृष्ट प्रस्तुति पर पुनः आपको हार्दिक बधाई सादर प्रणाम के साथ

Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on August 14, 2016 at 6:23pm
साथ निभाता है हंसने में आंसू भी
अश्कों से कुछ याराना सा लगता है।
वाह्ह्ह आदरणीय भंडारी जी बहुत ही सुन्दर रचना । बधाई प्रेषित है ।

कृपया ध्यान दे...

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