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बंदगी जिनका सफीना था--(ग़ज़ल)-- मिथिलेश वामनकर

2122-- 1122 --1122 –112

 

बंदगी जिनका सफीना था, वही पार गए

नाखुदाओं पे भरोसा जो किया, हार गए

 

अम्न के वास्ते इस पार से उस पार गए

भीड़ में शोर कि इस बार भी गद्दार गए

 

आखिरी आस भी रौशन-जहाँ की जाती रही

जब उजालों की हिफाज़त को ही अंधियार गए

 

तब हर इक घर में सदाकत का जनाजा उतरा

झूठ से लिपटे हुए सुबह जो अखबार गए

 

इस हुकूमत से कहो- ‘जुल्म का है हश्र यही,

सारे सुलतान गए साथ में दरबार गए’

 

जो हवा में बने थे, अहले-वतन देख लिया 

वो तरक्की के सभी प्लान भी बेकार गए

 

आज वेतन जो मिला कांपते हाथों ने कहा-

जेब की जद से मियाँ आज के बाज़ार गए

 

इस सियासत में उठी जब भी नई हलचल तो

दलबदल सिर्फ हुआ और तरफदार गए

 

हकपरस्ती को चला सत्य जो ताने सीना

नेक दिल लोग मिले, सत्य को दुत्कार गए

 

एक दर्शन की तमन्ना है अधूरी अब तक

सिर्फ काशी नहीं काबा भी कई बार गए

 

यूं तो हिंसा के विरोधी है, भरोसा कर लो 

हम तो बस जोश में ही आपको ललकार गए

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment

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Comment by Ravi Shukla on October 21, 2015 at 12:47pm

आदरणीय जयनित जी जो अल्‍फ़ाज़ आपको नहीं समझ आ रहे मंच पर बेहिचक रखिये सभी मित्र अपनी समझ के अनुसार उसे साझा कर लेंगे जिससे आप ग़ज़ल का पूरा लुत्‍फ़ ले सकेगें ।

Comment by Shyam Narain Verma on October 20, 2015 at 6:08pm
बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर रचना के लिए ……………..
Comment by जयनित कुमार मेहता on October 20, 2015 at 12:11pm
ग़ज़ल का भाव काफी हद तक समझ आया, पर उर्दू ज्ञान न होने के कारण काफी कुछ ना-समझा रह जाता है..

ग़ज़ल की बधाइयाँ आपको,आदरणीय मित्रवर!!

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