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अदृश्य भय - लघुकथा (मिथिलेश वामनकर)

“आज बहुत लेट हो गई ? ’मम्मा ऑफिस से कब आएगी’, पूछ-पूछ कर परी ने कबसे परेशान कर रखा है..”
सासू माँ की बगल में सुनंदा की तीन साल की बेटी चुपचाप अपनी गुड़िया के साथ खेल में मग्न थी.
“मधुकर भैया है न, इनके दोस्त, उनके यहाँ बेटी हुई है, बस हॉस्पिटल गई थी. इनका फोन आया था कि वो नहीं जा पाएंगे इसलिए मुझे जाना पड़ा.” - सुनंदा की आवाज़ सुनकर परी दौड़ती हुई अपनी मम्मा से लिपट गई.
“अरे उसकी तो पहले ही एक लड़की है न ?... काश इस बार लड़का हो जाता.. अच्छा रहता.”  कहती हुई सासू माँ ने सुनंदा से लिपटी हुई परी को कुछ ऐसी नज़रों से देखा कि सुनंदा भीतर तक काँप गई.

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by Omprakash Kshatriya on July 21, 2015 at 2:14pm
भाई मिथिलेश जी
भय को व्यक्त करती बेहतरीन लघुकथा के लिए बधाई ।
Comment by Er Anand Sagar Pandey on July 21, 2015 at 1:32pm
सम्मानित मिथिलेश जी !
यह दुखद है परंतु हमारे तत्कालीन समाज का एक कड़वा सत्य है l
हृदय स्पर्शी लघुकथा की प्रस्तुति हेतु शुभकामनायें स्वीकार करें l
Comment by विनय कुमार on July 21, 2015 at 1:11pm

बढ़िया लघुकथा आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी | अमूमन हर सासू माँ के मन में यही इच्छा होती है कि एक लड़का पैदा हो उसके घर ताकि वंश आगे बढे | लेकिन पंच लाइन ने जबरदस्त असर किया है , बधाई इस रचना के लिए..


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 21, 2015 at 12:25pm

इस लघुकथा का कोई सटीक शीर्षक ध्यान में आये तो साझा हेतु भी निवेदन है.

कृपया ध्यान दे...

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