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ग़ज़ल---१२-२२ १२-२२ १२-२२ आ रहा है अब

ग़ज़ल में दर्द ढल कर आ रहा है अब

कोई दरिया मचल कर आ रहा है अब

 

बड़े साहब ने इक साँचा बनाया है

जिसे देखो पिघल कर आ रहा है अब

 

ज़रा सा होश खोते ही हुआ जादू

जुबां पर सच निकल कर आ रहा है अब

 

चलो अच्छा हुआ जो ठोकरें खायी

गिरा लेकिन सँभल कर आ रहा है अब

 

बनाया मोम से पत्थर जिसे मैंने

मेरी जानिब उछल कर आ रहा है अब

 

गरज़ ढुलते ही रस्ता हो गया चिकना

मेरे घर वो फिसल कर आ रहा है अब

 

जिगर ‘खुरशीद’ का दिन भर फलक पर था

चरागों में भी जल कर आ रहा है अब

 मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 23, 2015 at 12:54pm
बड़ी खूबसूरत ग़ज़ल हुई है ख़ुरशीद साहब। हर शे’र अच्छा हुआ है। दिली दाद कुबूल करें। मेरे विचार में मत्ले में मिसरा-ए-सानी को मिसरा-ए-ऊला बना दिया जाय तो संभवतः और बेहतर प्रभाव उत्पन्न होगा। सादर

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